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________________ सम्पादकीय भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक क्षितिज पर विक्रम संवत् १५०५ की मिति अगहन सुदी सप्तमी को एक महान क्रांतिकारी ज्ञान रवि के रूप में आध्यात्मिक शुद्धात्मवादी संत श्रीमद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज का उदय हुआ। बचपन से ही पूर्व संस्कार संयुक्त होने से विलक्षण प्रतिभा संपन्न श्री जिन तारण तरण पुण्य संपृक्त अपनी बाल सुलभ चेष्टाओं के द्वारा सभी को सुखद अनुभव कराते हुए दूज के चन्द्रमा की भाँति वृद्धि को प्राप्त होने लगे। वे जब पाँच वर्ष के थे तब राज्य में क्रांति, कोषालय में आग लगना तथा तारण स्वामी द्वारा पुन: कागजात तैयार करवा देना उनके बाल्यकालादति प्राझं" होने का बोध कराता है। कागजात तैयार कराने का कारण यह कि उनके पिता श्री गढ़ाशाह जी पुष्पावती नगरी के राजा के यहाँ कोषाधीश पद पर कार्यरत थे। " मिथ्याविली वर्ष ग्यारह" श्री छमस्थ वाणी जी ग्रंथ के इस सूत्रानुसार (१/१७ ) उन्हें ग्यारह वर्ष की बालवय में आत्म स्वरूप के अनुभव प्रमाण बोध पूर्वक मिथ्यात्व का विलय और सम्यक्त्व की प्रगटता हुई, जैसा कि सम्यक्त्व का महात्म्य आचार्य प्रणीत ग्रंथों में उपलब्ध होता है कि सम्यक्त्व रूपी अनुभव संपन्न सूर्य के उदय होने पर मिथ्यादर्शन रूपी रात्रि विलय को प्राप्त होती है, सम्यक्त्व के प्रकाश में मिथ्यात्व आदि विकार टिकते नहीं हैं। आत्म अनुभव के जाग्रत होने पर अनादि कालीन अज्ञान अंधकार का अभाव हो जाता है तथा संसार, शरीर, भोगों से सहज वैराग्य होता है। यह सब श्री तारण स्वामी के जीवन में हुआ और आत्मबल की वृद्धि होने के साथ-साथ वैराग्य भाव की वृद्धि भी होने लगी इसी के परिणाम स्वरूप उन्होने इक्कीस वर्ष की किशोरावस्था में बाल ब्रह्मचर्य ब्रत पालन करने का संकल्प कर लिया और सेमरखेड़ी वन, जो विदिशा जिले में सिरोंज के निकट स्थित है, की गुफाओं में आत्म साधना करने लगे। ___ माँ की ममता और पिता का प्यार भी उनकी आध्यात्मिक गति को बाधा नहीं पहुँचा सका और निरंतर वृद्धिगत होते हुए वैराग्य के परिणाम स्वरूप श्री तारण स्वामी ने तीस वर्ष की युवावस्था में सप्तम ब्रह्मचर्य प्रतिमा के व्रतों को पालन करने की दीक्षा ग्रहण की। श्री गुरु तारण स्वामी की संयम साधना और आध्यात्मिक क्रान्ति के बारे में उल्लेख करते हुए सिद्धांतशास्त्री स्व. पं. श्री फूलचंद जी ने ज्ञान समुच्चय सार ग्रंथ की भूमिका में लिखा है कि "जैसा कि हम पहले बतला आए हैं अपने जन्म समय से लेकर पिछले तीस वर्ष स्वामी जी को शिक्षा और दूसरे प्रकार अपनी आवश्यक तैयारी में लगे । इस बीच उन्होंने यह भी अच्छी तरह जान लिया कि मूल संघ कुंद-कुंद आम्नाय के भट्टारक भी किस गलत मार्ग से समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित करते हैं । उसमें उन्हें मार्ग विरुद्ध क्रियाकाण्ड की भी प्रतीति हुई अत: उन्होंने ऐसे मार्ग पर चलने का निर्णय लिया जिस पर चलकर भट्टारकों के पूजा आदि संबंधी क्रियाकाण्ड की अयथार्थता को समाज हृदयंगम कर सके; किन्तु इसके लिए उनकी अब तक जितनी तैयारी हुई थी उसे उन्होंने पर्याप्त नहीं समझा । उन्होंने अनुभव किया कि जब तक मैं अपने वर्तमान जीवन को संयम से पुष्ट नहीं करता, तब तक समाज को दिशादान करना संभव नहीं है। यही कारण है कि तीस वर्ष की उम्र में सर्वप्रथम वे स्वयं को व्रती बनाने के लिए अग्रसर हुए।” उनकी आत्म साधना पूर्वक निरंतर वृद्धिगत होती हुई वीतरागता, सेमरखेड़ी के निर्जन वन की पंचगुफाओं में ममल स्वभाव की साधना उन्हें एक ओर अपने आत्मकल्याण और मुक्त होने के लक्ष्य की ओर अग्रसर होने में प्रबल साधन बन रही थी, वहीं दूसरी ओर उनके सातिशय पुण्य के योग से सत्य धर्म, अध्यात्म मार्ग की प्रभावना हो रही थी और लाखों जिज्ञासु आपके अनुयायी बन रहे थे जिसमें जाति-पांति का कोई भेदभाव नहीं था। इस मार्ग को स्वीकार करने का आधार था-सात व्यसन का त्याग और अट्रारह क्रियाओं का पालन करना। अनेक भव्य जीवों का जागरण, निष्पक्ष भाव से हो रही धर्म प्रभावना, आध्यात्मिक क्रांति का रूप धारण कर रही थी। यह सब, भट्टारक और धर्म के ठेकेदारों को रुचिकर नहीं लगा फलत: योजनाबद्ध ढंग से श्री तारण स्वामी को जहर पिलाया गया और बेतवा नदी में डुबाया गया किन्तु इन घटनाओं से भी वे विचलित नहीं हुए बल्कि यह सब होने के पश्चात् तारण पंथ का अस्तित्व पूर्ण रूपेण व्यक्त और व्यवस्थित हो गया तथा वट वृक्ष की तरह विराट् स्वरूप धारण कर लिया । प्रभावना आदि का विशेष योग होते हुए भी श्री गुरू तारण स्वामी
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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