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का बाह्य राग और प्रपंचों से कोई संबंध नहीं था। उनकी वीतराग भावना इतनी उत्कृष्ट होती गई कि साठ वर्ष की उम्र में उन्होंने निर्ग्रन्थ दिगम्बर जिन दीक्षा धारण कर ली। श्री गुरुदेव १५१ मण्डलों के प्रमुख आचार्य होने से मण्डलाचार्य पद से अलंकृत हुए। उनके श्री संघ में ७ निर्ग्रन्थ मुनिराज (साधु), ३६ आर्यिकायें, २३१ ब्रह्मचारिणी (सुवनी) बहनें तथा ६० ब्रह्मचारी व्रती श्रावक एवं १८ क्रियाओं का पालन करने वाले सद्ग्रहस्थ श्रावक लाखों की संख्या में थे। उनके शिष्यों की कुल संख्या ४३४५३३१ थी, जिसका संपूर्ण विवरण श्री नाममाला ग्रन्थ में उपलब्ध है। श्री गुरुदेव तारण स्वामी साधु पद पर ६ वर्ष, ५ माह, १५ दिन तक प्रतिष्ठित रहे, पश्चात् विक्रम संवत् १५७२ की ज्येष्ठ वदी छठ को समाधि धारण कर सर्वार्थ सिद्धि को प्राप्त हुए।
उन्होंने पाँच मतों में चौदह ग्रंथों की रचना की जो इस प्रकार हैं - विचार मत में - श्री मालारोहण, पण्डितपूजा, कमलबत्तीसी जी । आचार मत में- श्री श्रावकाचार जी। सार मत में - श्री ज्ञान समुच्चय सार, उपदेश शुद्ध सार, त्रिभंगी सार जी। ममलमत में - श्री चौबीस ठाणा, ममल पाहुड़ जी । केवल मत में- श्री खातिका विशेष, सिद्ध स्वभाव, सुन्न स्वभाव,
छद्मस्थवाणी तथा नाममाला ग्रंथ हैं। इन पाँच मतों में विचार मत में-साध्य, आचार मत में-साधन, सार मत में-साधना, ममलमत में-सम्हाल (सावधानी) और केवल मत में-सिद्धि का मार्ग प्रशस्त किया है । इसके लिए आधार दिया है क्रमश: भेदज्ञान, तत्वनिर्णय, वस्तुस्वरूप, द्रव्य दृष्टि और ममलस्वभाव का, जिनसे उपरोक्त साध्य आदि की सिद्धि होती है।
यह अध्यात्म ज्ञान मार्ग अपने शुद्धात्म स्वरूप के आश्रय से ही प्रशस्त होता है। इसमें पर पर्याय, कर्मादि संयोग, शरीर या बाह्य क्रियाकाण्ड यहाँ तक कि परमात्मा भी पर हैं, इनकी तरफ दृष्टि भी इस मार्ग में बाधा है, इसलिये श्री जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज पर की समस्त पराधीनता के लिये वज्रपात थे। वे समस्त बंधनों से परे होकर चले तथा वीतराग जिन धर्म के अनाद्यनन्त सिद्धांत वस्तु स्वातंत्र्य और पुरुषार्थ से मुक्ति की प्राप्ति का, स्वयं
परमात्मा होने के विधान का शंखनाद किया । उनका जीवन गौरवपूर्ण था, वे छल-प्रपंच से बहुत दूर सत्य निष्ठ थे, भय का उनके जीवन में कहीं नाम-निशान भी नहीं था। उनके द्वारा की गई अध्यात्म क्रांति उनकी वीतरागता, निस्पृहता, निर्भयता और जन-जन को धर्म और पूजा के नाम पर फैल रहे आडम्बर, जड़वाद, पाखण्डवाद से मुक्त कर सत्य अध्यात्म धर्म में स्थिर कर देने की भावना का परिणाम थी।
उनकी विशुद्ध आध्यात्मिक परंपरा में ज्ञान मार्ग पर निरंतर अग्रणी, आत्म साधना के सतत् प्रहरी, आध्यात्मिक संत, अध्यात्म शिरोमणी पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज अहर्निश अपने आत्म चिंतन साधना में रत रहते हुए हम सभी भव्यात्माओं के आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं, यह हमारा महान सौभाग्य है। श्री गुरु तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज द्वारा विरचित चौदह ग्रंथों में से पूज्य श्री द्वारा अनूदित श्री मालारोहण ग्रंथ की अध्यात्म दर्शन टीका, श्री पण्डित पूजा ग्रंथ की अध्यात्म सूर्य टीका और श्री कमलबत्तीसी ग्रंथ की अध्यात्म कमल टीका का प्रकाशन हुआ, साथ ही अध्यात्म अमृत (चौदह ग्रंथ जयमाल एवं भजन), अध्यात्म आराधना, अध्यात्म भावना तथा चौपड़ा (महाराष्ट्र) से अध्यात्म धर्म (धम्म आयरन फूलना-सार्थ ) का प्रकाशन हुआ, जिससे समाज में स्वाध्याय की रुचि और भावनायें जाग्रत हुई हैं। स्वाध्याय का एक व्यवस्थित क्रम बना है । इसके साथ ही देश के कोने-कोने में दिगम्बर-श्वेताम्बर जैन तथा जैनेतर बंधु भी लगन पूर्वक इन ग्रंथों का स्वाध्याय मनन कर अपने आपको सौभाग्यशाली समझ रहे हैं। इस साहित्य से देश के लोगों में श्री गुरुदेव को और उनकी वाणी को जानने की जिज्ञासायें प्रबल हुईं हैं जो हमारे लिए प्रसन्नता और गौरव का विषय है।
पूज्य श्री महाराज जी ने सन् १९९१-९२ में मौन साधना कर विशेष अनुभव रत्न उपलब्ध किये थे, यह टीकायें भी उसी साधना के अंतर्गत सहज ही लिपिबद्ध हो गईं, जो आज हमारे लिये मार्गदर्शक सिद्ध हो रहीं हैं। सहस्राब्दि वर्ष २००० में तीन बत्तीसी जी के प्रकाशन के पश्चात् नई शताब्दि वर्ष २००१ के नवप्रभात के प्रारम्भ में पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज द्वारा अनूदित श्री त्रिभंगीसार जी ग्रंथ की अध्यात्म प्रबोध टीका आपको स्वाध्याय हेतु उपलब्ध कराते हुए अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
प्रस्तुत श्री त्रिभंगीसार जी ग्रंथ, सारमत का ग्रंथ है । इस ग्रंथ में श्री गुरु