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विशेषार्थ - प्रत्येक जीव आत्मा अपने आप में परिपूर्ण है, शुद्धात्मा है, ऐसी शुद्ध भावना करे, और अपना इष्ट, प्रयोजनीय, निज शुद्धात्म स्वरुप, शुद्ध समय सार को देखे, अनुभूति करे, वह प्रत्येक जीव शुद्ध दृष्टि है। यही सत्यधर्म की उपलब्धि और सत्य धर्म को प्रगट करने की विधि है। तथा जिस प्रकार कोई इन्द्र, तीर्थंकर परमात्मा जब वह पैदा होते हैं, तब उनकी विशेष छवि का अवलोकन करता है। उसी प्रकार अपना ध्रुवस्वभाव निज शुद्धात्मा सच्चा देव है, तथा अपना उपयोग ही इन्द्र और प्रतीन्द्र है। यही निज स्वभाव के अनुभव से ज्ञानी होकर अखंड ज्ञानमयी शुद्धात्म - स्वरुप की भावना भाता है, और यही शुद्ध दृष्टि ज्ञानी अपने प्रयोजनीय शुद्धात्मा की अनुभूति करता है। स्वानुभव में ज्ञानी अपने आत्मा को परमात्मस्वरुपदेखता है, तथा प्रत्येक आत्मा को भी परमात्म स्वरुप देखता है । यही ज्ञानी की दृष्टि की विशेषता है। सत्य धर्म की उपलब्धि का यही एक मार्ग है।
साधने योग्य निज शुद्धात्म स्वरुपको दर्शित करने के अर्थ, अरिहन्त, सिद्ध, परमेष्ठी दर्पण समान है। अपना तो "चिदानन्द ज्ञायक स्वरुप है।" वही साधने योग्य है इसके लिये अरिहन्त सिद्ध परमात्मा प्रमाण हैं, निमित्त है। अरिहन्त का स्वरुप निर्णीत करें तो प्रतीत हो कि “आत्मा भी चिदानन्द प्रभु है।" पुन्य पापादि कर्म पर्याय में है, व उनका नाश होने पर स्वयं सर्वज्ञ हो सकते हैं। निज स्वभाव रुपी साधन द्वारा ही परमात्मा हुआ जाता है। गृहस्थाश्रम में परमात्म दशा प्राप्त नहीं होती, यहां तत्व निर्णय द्वारा वस्तु स्वरुप को जानकर निज शुद्धात्मानुभूति करना ही इष्ट प्रयोजनीय है, यही सत्य धर्म की उपलब्धि है और इसी की साधना द्वारा अपना दिव्य स्वरूप प्रगट होता है। अरिहन्तादि का स्वरुप वीतराग विज्ञानमय होता है। इसी कारण से अरिहन्तादि स्तुति योग्य महान हये हैं। अन्तर शुद्धता होना व उसका ज्ञान ही परम इष्ट है, क्योंकि जीव तत्व की अपेक्षा से तो सर्व जीव समान हैं। शक्ति से तो सभी आत्मायें शुद्ध हैं, परन्तु रागादि विकार अथवा ज्ञान की हीनता की अपेक्षा से पर्याय दृष्टि से जीव आत्मा, परमात्मा में भेद कहे गये हैं। जो बहिरात्मा, अन्तरआत्मा, परमात्मा रुपसे जाने जाते हैं।
एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ करता तो नहीं, परन्तु स्पर्श भी नहीं करता। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। प्रत्येक द्रव्य की पर्याय क्रमबद्ध होती
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है। आत्मा मात्र ज्ञायक, परमानन्द स्वरुप है। यह भगवान सर्वज्ञ देव की दिव्य ध्वनि का नाद है।
अध्यात्म की ऐसी सूक्ष्म बात इस काल में, जिसे अन्तर में रुचकर परिणमित हो जाये, उस जीव के दो चार भव ही होंगे, अधिक नहीं, यह जिनवाणी कथन है। उपयोग जीव का लक्षण है। उसी के द्वारा लक्ष्य को साधा जाता है। जब तक यह पर लक्षी है, अर्थात् संसार शरीरादि में एकत्व, अपनत्व मान रहा है तब तक अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है, और जब यह उपयोग स्वलक्षी होता है। अपने स्व द्रव्य शुद्धात्म स्वरुप की ओर दृष्टि करता है। तब यही सम्यकदृष्टि ज्ञानी कहलाता है, और अपने स्वभाव में लीन रहने पर अड़तालीस मिनिट में केवल ज्ञान, अरिहन्त सर्वज्ञ पद प्रगट हो जाता है।
जिसे बाहर का कुछ चाहिए, संसारी, कामना, वासना है, वह भिखारी है। जिसे अपना आत्मा ही चाहिए, वह संत, महात्मा, परमात्मा होता है।
आत्मा अतीन्द्रिय शक्ति का स्वामी है। जिस क्षण जागे,उस क्षण ही वह जाग्रत ज्योति आनन्द स्वरुप, अनुभव गम्य हो जाता है।
जिन्हें सत्य धर्म, निज शुद्धात्म स्वरुप समझने के लिये अन्तर में सच्ची लगन और छटपटी हो, उन्हें अन्तर मार्ग समझ में आये बिना रहे ही नहीं। अवश्य समझ में आता है। प्रश्न - सत्यधर्म अपने शुद्धात्म स्वरुप को समझ कर फिर क्या
करना पड़ता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं ............
गाथा (२७) दातारो दान सुद्धं च, पूजा आचरन संजुतं । सुद्ध संमिक्त हृदयं जस्य, अस्थिर सुद्ध भावना ||२७|| अन्वयार्थ - (दातारो) दान देने वाले दातार, (दान सुद्ध) शुद्ध दान-सच्चा दान (च) और (पूजा) पूजा करना (आचरन संजुतं) पूज्य समान आचरण करना , उसमें ही लीन रहना, सच्ची पूजा है (सुद्ध संमिक्त) शुद्ध सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यग्दर्शन (हृदयं जस्य) जिसके हृदय में है अर्थात् अनुभूति युत सच्चा श्रद्धानी सम्यक्त्वी है (अस्थिरं) स्थिर रहना, दृढ़, अटल, स्थित, (सुद्धभावना) शुद्धात्मस्वरुपकीशुद्ध भावना, अथवा परम
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