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(पण्डिलो) पंडितों की (वंदना) स्तुति आराधना (पूजा) पूजा( मुक्ति गमनं) मोक्ष मार्ग प्रदान करने वाली मोक्ष गामी (न संशया) इसमें कोई संशय नहीं
विशेषार्थ - इसलिए मैंने शुद्ध पूजा का स्वरुप कहा है कि अपने शुद्धात्म स्वरुप का प्रकाश करना, अपने गुणों को प्रगट करना, स्वयं आत्मा से परमात्मा होना, यही पंडितों की, ज्ञानी जनों की स्तुति आराधना पूजा है जो मोक्ष प्रदान करने वाली है। इसमें कोई संशय नहीं है।
अदेवादि की पूजा जीव को संसार में परिभ्रमण कराने वाली है, इसलिए मैंने (श्री जिन तारण स्वामी) ने शुद्ध पूजा का स्वरूप कहा, यह यथार्थ पूजा अक्षय आनन्द को देने वाली और शुद्ध तत्व की प्रकाशक है। इससे अपना सहजानन्द मयी ध्रुव धाम परमात्म पद प्रगट हो जाता है। ज्ञानी साधु अपने परमात्म स्वरुप की वन्दना करते हैं और निज स्वभाव में लीन होकर निजानन्द मय रहते हैं, यही ज्ञानी की वन्दना पूजा है। इसी शुद्ध पूजा सेपरमानन्दमयी, अविनाशी पद मुक्ति की प्राप्ति होती है। इसमें कोई संशय नहीं है जैन आगम में जिनेन्द्र परमात्मा ने जो अपनी पर्याय, पर द्रव्य का स्पर्श नहीं करती, उसकी बात तो एक ओर है, परन्तु जोशान्ति, आनन्द आदि की पर्याय अपने अस्तित्व में हैं, उनमें से भी आनन्दादि की नयी पर्यायें प्रगट होने से उन्हें (उन पर्यायों को) पर द्रव्य कहा है तथा त्रिकाली गुण पिण्ड को स्व द्रव्य कहा है। केवल ज्ञान की पर्याय को भी द्रव्य कहा है तो स्व द्रव्य कौन? अपना त्रिकाली ध्रुव स्वभाव स्व द्रव्य है। जिसका ज्ञान, श्रद्धान, स्मरण, ध्यान करने से परमात्म पद प्रगट होता है। त्रिकाली सहज ज्ञान, त्रिकाली सहज दर्शनात्मक शुद्ध अंतःतत्व स्वरुप, स्व द्रव्य है। उसका आधार कारण समयसार (शुद्धात्मा) है, यह कारण समयसार ही उपादेय है । मोक्ष का कारण समभाव वीतरागता है, और वीतराग स्वभावी भगवान आत्मा है। भगवान आत्मा पूर्णानन्द से परिपूर्ण स्वभाव है। इस स्वभाव साधन से ही जीव की मुक्ति होती है, अन्य किसी साधन से नहीं होती। सर्वज्ञ परमेश्वर की वाणी में वस्तु स्वरुप की ऐसी परिपूर्णता उपदिष्ट हुई है कि प्रत्येक आत्मा अपने स्वभाव से पूर्ण परमेश्वर है। चैतन्य तत्व के लक्ष्य से रहित जो कुछ किया, वह सब सत्य से विपरीत हुआ, इसलिये अनादि से संसार परिभ्रमण
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चल रहा है। अतः जिन्हें आत्मा में अपूर्व धर्म प्रगट करना हो, मुक्ति चाहना हो, उन्हें अपनी पूर्व में मानी हुई सभी बातों मिथ्या मान्यताओं को अक्षरशः मिथ्या जानकर ज्ञान का सम्पूर्ण बहाव ही बदलना पड़ेगा। कोई भी तत्व को किसी अन्य तत्व के आश्रय की आवश्यकता नहीं है। एक द्रव्य दसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, ऐसा समझ कर अपने परिपूर्ण आत्मा की श्रद्धा व आश्रय करना वपर का आश्रय छोड़ना ही परमेश्वर होने, मुक्ति का पंथ (तारणपंथ) है। ज्ञान को स्वतंत्र मानने वाला, ज्ञेय को भी स्वतंत्र मानता है। ज्ञेयको स्वतंत्र मानने वाला, ज्ञान को भी स्वतंत्र मानता है। परन्तु स्वयं को पराधीन मानने वाला सबको पराधीन मानता है। जगत में पूर्णता को प्राप्त परमात्मा अनन्त है, किन्तु कोई पर परमात्मा किसी का कुछ नहीं कर सकता। समय-समय की पर्याय स्वतंत्र है, वही जैन दर्शन है। पर अभी जिनके कुदेवादि कि श्रद्धा ही नहीं छूटी, उनको धर्म ध्यान नहीं हो सकता। वे तो गृहीत मिथ्यात्व में फंसे हैं। ऐसे जीवों को यह बात ही नहीं जंचती कि आत्मा स्वयं परमात्मा है, पुण्य पापरहित है और आत्मा की जो धर्म क्रिया साधना है, वह उनके लक्ष्य में ही नहीं आती, वे तो जड़ की शरीर की क्रिया पूजा आदि में धर्म मानकर अधर्म का ही सेवन करते हैं। प्रश्न - इस सत्य धर्म को उपलब्ध करने का क्या उपाय है, इसे कैसे
प्रगट किया जाये? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं............
गाथा - (२६) प्रति इन्द्र प्रति पूर्णस्य, शुद्धात्मा सुद्ध भावना।
सुद्धार्थ सुख समयं च, प्रति इन्द्र सुद्ध दिस्टितं ॥२६|| अन्वयार्थ - (प्रति) प्रत्येक (इन्द्रं) इन्द्रियों और मन को धारण करने वाला प्राणी, जीव, आत्मा (प्रति) अपने आप में (पूर्ण स्य) परिपूर्ण है (शुद्धात्मा)शुद्धात्मा है (सुद्ध भावना) ऐसी शुद्ध भावना करे (सुद्धार्थं) अपना इष्ट और शुद्ध प्रयोजनीय (सुद्ध समयं) शुद्धात्म स्वरुप - शुद्ध समयसार (च) और (प्रति) प्रत्येक (इन्द्र) इन्द्र (उपयोग वाला) जीव(सुद्ध दिस्टिस) शुद्ध दृष्टि है अथवा अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखे।
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