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पारिणामिक भाव। विशेषार्थ - जैसे संसार में जो भला आदमी होता है, वह दानादि, पूजा आराधना करता है। वैसे ही जिसने सत्यधर्म अपने शुद्धात्म, स्वरुपको जान लिया है। जिसके हृदय में शुद्ध सम्यक्त्व है। वह दाता शुद्धोपयोग रुप निश्चय शुद्ध दान करता है, तथा अपने शुद्धात्म स्वरुप में लीन रहना, सम्यग्चारित्र ही सच्ची पूजा है। इस प्रकार शुद्ध भावना में लगे रहना, परम पारिणामिक भाव में स्थित रहना ही ज्ञानी का कर्त्तव्य, पुरुषार्थ होता है।
ज्ञानी शुद्धोपयोग सहित निश्चय दान करता है। जिसे अन्तरंग में दाता और दान की शुद्धता उत्पन्न हुई है, तथा जिसके हृदय में शुद्ध सम्यक्त्व है, जो अपने उपयोग को स्वभाव में लगाता है, और निरंतर निज शुद्धात्म स्वरुपकीशुद्ध भावना में स्थिर रहता है वही ज्ञानी अशुद्धता का त्याग कर निज - स्वभाव में लीन होकर सच्ची पूजा करता है, अर्थात् अपने परम पारिणामिक भाव में स्थिर रहना ही सच्ची पूजा है।
व्यवहारिक चार दान देना पुण्य बन्ध का कारण है। सम्यग्दृष्टि ज्ञानी-अपनी भूमिकानुसार व्यवहार दान करता हुआ निश्चय दान की विशेषता रखता है। निश्चय से भेद ज्ञान करना ही आहार दान है जिससे आत्मा सबल स्वस्थ होकर आत्मानंद का भोग करता है। तत्व निर्णय करना ही औषधिदान है जिससे आत्मा समता शान्ति में निराकुल रहता है। वस्तु स्वरूप का निर्णय करना ही ज्ञान दान है, जिससे आत्मा ज्ञानानंद में ज्ञायक रहता है। द्रव्य दृष्टि का निरंतर अभ्यास करना अभय दान है जिससे आत्मा अवलबली होकर सहजानंद में रहता है।
जिसने आत्म धर्म को समझ लिया है, उसके जीवन में सहज साधना का क्रम चलता है। जब तक पूर्णता को प्राप्त नहीं होता, तब तक इसी क्रम से साधना, आराधना करता है। वर्तमान पर्याय पूर्व कर्म बन्धोदय कैसे हैं ? इसका भी ज्ञानियों को विवेक रहता है, तभी समता, शान्ति से सहजानन्द में रहता निर्विकल्प मार्ग पर आगे बढ़ता है।
प्रथम स्वरुप सम्मुख होकर निर्विकल्प अनुभूति होती है, आनन्द का वेदन होता है, तभी यथार्थ सम्यक्दर्शन हुआ कहलाता है इसके बिना यथार्थ प्रतीति नहीं कहलाती।
ज्ञानी को पर द्रव्य की क्रिया करने का विचार तो होता ही नहीं है, तथा उसे अपनी पर्याय में अशुभ भाव को शुभ करने का अभिप्राय भी नहीं रहता। आत्मा ज्ञायक रूप से रहे एक यही अभिप्राय रहता है। साधक दशा में राग होता है, वह निमित्त है, पर को छोडूं यह बात तो रहती ही नहीं है। ज्ञान स्वभाव की ओर जो पुरुषार्थ है, उससे शुद्धोपयोग होता है जिससे पूर्व बद्ध कर्म क्षय होते, और पर्याय में शुद्धता आती जाती है, ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है।
सिद्ध सम आत्मा का आंशिक अनुभव ही धर्म है। आनंद के प्रभु की निर्विकार शान्ति को धर्म कहते है। इसी स्थिति की साधना करना ही सच्चा दान और सच्ची पूजा है। जिससे परमात्म पद प्रगट होता है।
शुद्ध पारिणामिक भाव रुप त्रिकाली सहजानन्द प्रभु का अबलम्बन लेने वाली वह शुद्ध भावना है। त्रिकाली निजानन्द प्रभुतो भाव है और उसके लक्ष्य से उसके अवलम्बन से जो निश्चय मोक्षमार्ग प्रगट होता है, वह शुद्ध भावना है। ऐसी उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक भाव रुप भावनासमस्तरागादि से रहित होती है। ज्ञानी सम्यक् दृष्टि ऐसी भावना में स्थित रहता है। आत्मा को जानने वाला, ध्याता पुरुष, धर्मी जीव, जिसको स्वसंवेदन आनन्दानुभूति, सहित का एक अंशज्ञान प्रगट हुआ है, वह सकल निरावरण, अखंड एक शुद्ध पारिणामिक भाव लक्षण निज परमात्म स्वरुप का ध्यान करता है।
स्व पर प्रकाश का पुंज प्रभु तो शुद्ध ही है। पर जो राग से भिन्न होकर उसकी उपासना करे, उसी के लिये वह शुद्ध है। प्रश्न - यह पूजा आराधना, दानादि के शब्द तो बड़े भ्रम में डालते हैं। इनमें मन उलझता है, क्योंकि इनकी जो व्यवहारिक मान्यता और क्रिया है, वह तो सब विपरीत है। इसके लिये क्या किया जाये, इसका सही अभिप्राय क्या है? समाधान व्यवहारीजन को व्यवहारी भाषा ही के द्वारा समझाया जाता है। जो जीव जिस भाषा को जानता है, उसी भाषा में बोला जाये, तभी वह समझता है, अन्यथा नहीं समझता। इसी प्रकार ज्ञानमार्ग, अध्यात्म साधना में उन्हीं शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ज्ञानी शब्दों को नहीं मर्म पकड़ते
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