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ज्ञानी साधक निर्विकल्प होकर शुद्धात्मा की अनुभूति करते है। यही वस्तुतः सच्चे देव का दर्शन है। देव दर्शन के महात्म्य के बारे में कहा भी है
दर्शन देव देवस्य, दर्शन - पाप नाशनम् । वर्शनं स्वर्ग सोपान, दर्शन मोक्ष साधनम् ।। चिदानन्दैक रुपाय, जिनाय परमात्मने । परमात्म प्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नमः ।। जन्म जन्म कृतं पापं, जन्म कोटि मुपार्जितं ।
जन्म मृत्यु जरा रोगं, हन्यते जिन दर्शनात् ।।
इसीलिये तारणपंथी जब दर्शन करने के लिये खड़ा होता है तो अपने आप नेत्र बन्द हो जाते हैं। अध्यात्मवादी साधक कोई भी हो अपने शुद्ध स्वभाव के आलम्बन पूर्वक अपने स्वरूप का स्मरण दर्शन करता है, इसके नेत्र बन्द ही रहते हैं, क्योंकि परमात्मा का दर्शन, पर में या जड़ में नहीं होतापरमात्मा तो अपने देह - देवालय में विराजमान है, जिसकी दृष्टि उसपर जाती है, उसे ही निज परमात्मा के दर्शन होते हैं।
पर - परमात्मा के दर्शन न तो कभी किसी को हुये और न हो सकते - क्योंकि परमात्मा अव्यक्त, अवक्तव्य, अगोचर, अरुपी, चैतन्य ज्योति ज्ञान स्वरुप निज अनुभूति गम्य ही है।
ज्ञानी का परिणमन विभाव से विमुख होकर स्वरुप की ओर ढल रहा है। ज्ञानी निज स्वरुप में परिपूर्ण रुप से स्थिर होने को तड़फता है। जैसे पूर्ण मासी के पूर्ण चन्द्र के योग से समुद्र में ज्वार आता है , उसी प्रकार ज्ञानी साधक को पूर्ण चैतन्य चन्द्र के एकाग्र अवलोकन, दर्शन करने से आत्म समुद्र में ज्वार उछाल आता है।
वैराग्य का ज्वार उमंग उत्साह उछाल आता है, आनन्द का ज्वार आता है। सर्वगुण पर्याय का यथा सम्भव ज्वार आता है, यह ज्वार बाहर से नहीं, भीतर से आता है, पूर्ण चैतन्य चन्द्र को स्थिरता पूर्वक निहारने दर्शन करने पर अन्दर से चेतना उछलती है, चारित्र उछलता है, सुख उछलता है, वीर्य उछलता है सब कुछ उछलता है, ऐसा दर्शन ही जन्म - जन्म के पापकर्मों को क्षण भर में क्षय करता है।
धर्मी जीव को रोग की वेदना नहीं होती - मृत्यु का भय नहीं होता क्योंकि उसने शुद्धात्मा की शरण प्राप्त की है। विपत्ति के समय भी वह आत्मा में शान्ति प्राप्त कर लेता है। जिसने आत्मा के मूल अस्तित्व को नहीं पकड़ा, स्वयं शाश्वत ध्रुव तत्व अनन्त सुख से भरपूर हूँ, ऐसा अनुभव करके शुद्ध परिणति की धारा प्रगट नहीं की, उसने भले सांसारिक इन्द्रिय सुखों को नाशवन्त और भविष्य में दुःखदाता जानकर छोड़ दिया हो, और बाह्य मुनिपना ग्रहण किया हो । दुर्धर तप करता हो उपसर्ग - परिषह सहता हो तथापि उसे वह सब निर्वाण का कारण नहीं होता, संसारी स्वर्गादि का कारण होता है। सम्यकदर्शन होने के पश्चात आत्म-स्थिरता बढ़तेबढ़ते बारम्बार स्वरुप लीनता आत्मदर्शन होता रहे, ऐसी दशा हो - तब मुनिपना, साधु पद होता है।
साधु को बाहर का कुछ नहीं चाहिए, बाह्य में एक मात्र शरीर का संयोग है, उसके प्रति भी परम उपेक्षा - बड़ी निस्पृह दशा है, आत्मा की ही लगन लगी है। संसार की विकथाओं से विरक्त- आर्तरौद्र ध्यानों से मुक्त वे चलते-फिरते सिद्ध समान हैं।
साधक की अभी स्वानुभूति पूर्ण स्थिरता नहीं है। परन्तु दृष्टि में परिपूर्ण शुद्ध आत्मा है। ज्ञान परिणति, द्रव्य तथा पर्याय को जानती है परन्तु पर्याय पर जोर नहीं है दृष्टि में अकेला स्व की ओर का द्रव्य स्वभावका ही बल रहता है। द्रव्य तो स्वभाव से अनादि अनन्त है, जो कभी पलटता नहीं है, बदलता नहीं है। उस पर दृष्टि करने, उसका दर्शन करने से अपनी विभूति परमात्म स्वरुप का प्रगट अनुभव होता है।
शुद्ध निज स्वभाव की वेदिकाग्र थिर होके, ज्ञानी अनुभवते, चिद्रूप निरगंथ है । यही परम धौव्य धाम - शुद्धातम देव जो, सदा चतुष्टय मयी अनादि अनन्त है। तीन लोक मांहि स्व समय शुद्ध है त्रिकाल, देह देवालय में ही रहता भगवन्त है। ज्ञानी अनुभूति करते निज शुद्धातम की, यही देव दर्शन निश्चै तारण पंथ है।
(ब.बसंत)
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