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________________ होगी, कब श्रेणी माड़कर परमानन्दमयी परमात्म पद केवल ज्ञान प्रगट होगा, कब ऐसा परम ध्यान होगा, कि आत्मा शाश्वत रुप से अपने ध्रुव धाम में जम जायेगा, चैतन्य का पूर्ण विलास प्रगट होगा इस भावना को ज्ञानी साधक निरन्तर भाते है। प्रश्न - यहाँ शुद्ध दृष्टि में पच्चीस मल दोषों का क्या काम है, यह तो सम्यक्त्व की शुद्धि होने पर ही छूट गये, ज्ञान के द्वारा सब साफ हो गये, फिर यहां पुनः किस अपेक्षा से कहे गये हैं ? समाधान - यहां चारित्र की अपेक्षा पूर्णतः विसर्जन होते हैं, कारण कि अभी शरीरादि संयोग होने, संसार में रहने से चक्षु - अचक्षुदर्शन द्वारा दिखाई तो देते हैं, रागांश होने से दोष भी लगता है। संसार का - पर का - पर्याय का जब तक महत्व आकर्षण है, तब तक यह दोष रहते हैं। श्रद्धान - ज्ञान पूर्वक परिमार्जन होने के बाद भी जब-तक दृष्टि की शुद्धि नहीं होती तब-तक उधर उपयोग जाता ही है। दृष्टि की शुद्धि होने से दृष्टि में संसार का - पर का पर्याय का - महत्व आकर्षण जगत की सत्ता ही तिरोहित हो जाती है। तभी यथार्थता यह दोष बिलाते हैं। जब दृष्टि में शुद्ध वस्तु स्वरुप दिखाई देने लगता है कि यह शुद्ध जीवास्तिकाय रुपमैं स्वयं हूं और ऐसे ही समस्त जीव हैं, तथा यह सामने शुद्ध - पुद्गल परमाणु रुप ही दिखाई देता है। पुद्गल की अशुद्ध पर्याय - स्कन्ध रुप जगत ही दृष्टि की अशुद्धि, भ्रांति है जिसके मिटने पर शुद्ध दृष्टि होती है। प्रश्न - ऐसी शुद्ध दृष्टि तो क्षायिक सम्यक्त्व होने पर ही हो सकती है। क्या यह पंडित ज्ञानी क्षायिक सम्यक्दृष्टि निर्ग्रन्थ वीतरागी साधु है ? समाधान - ज्ञानी क्या है ? यह तो वही जाने, पर जब तक यह स्थिति नहीं बनती- तब तक साधना करता है। ज्ञानी को किसी प्रकार का विकल्प, उकताहट अधीरता नहीं है। वह सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं चलता। जैसे सौ डिग्री पानी गरम होवे तो ही भाप बनता है। इसी प्रकार ज्ञान मार्ग में भी निन्यानवे टंच नहीं चलता, पूर्ण शुद्ध सिद्ध परमात्मा होता है, तो जो विधान है वह उसका पूर्णतः पालन करता है, और अपनी पात्रतानुसार चलता है। अज्ञानी ने अनादि काल से अनन्त ज्ञान, आनन्द आदि समृद्धि से भरे निज चैतन्य महल चैत्यालय को ताले लगा दिये हैं, और स्वयं बाहर [55] ढूंढता भटकता रहता है, ज्ञान बाहर से ढूंढता है, आनन्द बाहर से ढूंढता है सब कुछ बाहर से ढूंढता है। स्वयं भगवान होने पर भी भीख मांगता रहता है। ज्ञानी ने चैत्यालय महल के ताले खोल लिये है, अन्तर में ज्ञान आनन्द आदि की अटूट समृद्धि देखकर और थोड़ी भोगकर उसी में निरन्तर रत रहना चाहता है । इसी चैतन्य महल - चैत्यालय में विराजमान निज चैतन्य प्रभु परमात्मा के दर्शन करने के लिये शीघ्र ही अन्तर प्रवेश करता है। इस प्रकार पंडित पूजा करने के लिये ज्ञान स्नान - प्रक्षालन कर वस्त्राभूषण धारणकर शुद्ध दृष्टि होकर परमात्मा के दर्शन करने के लिये निज मन मन्दिर - चैत्यालय में प्रवेश करता है। जहां वह अपने परमात्मा की आराधना स्तुति - पूजन करेगा। प्रश्न - यह पंडित ज्ञानी कहाँ - किसके दर्शन करता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं .. गाथा (२१) वेदिका अग्र स्थिरश्चैव, वेदतं निरग्रंथ धुवं । त्रिलोक समय शुद्ध, वेद वेदन्ति पंडिता ॥२१॥ अन्वयार्थ - (वेदिका) वेदी - जिस पर वेद (भगवान की वाणी) विराजमान की जाती है, वेदिका जहां परमात्मा निज स्वरुप में स्थिर रहते हैं (अग्र) आगे स्थिरश्चैव) स्वस्थ्य, सावधान, स्थिर होकर (वेदतं) अनुभव, अनुभूति करते, दर्शन करते हैं, (निग्रंथ) जो समस्त आरम्भ परिग्रह आदि मद मिथ्यात्व के बंधनों से रहित निर्ग्रन्थ स्वरुप (धुव) ध्रुव है (त्रिलोकं) तीन लोक में (समयं सुद्ध) शुद्ध सम-निज शुद्धात्मस्वरुप शुद्ध समयसार। (वेद) भगवत्स्वरुप वाणी (वेदन्ति) अनुभूति करते हैं (पंडिता) पंडित, ज्ञानी जना विशेषार्थ - अपने शुद्ध स्वभाव की वेदिका के आगे स्थिर होकर ज्ञानी, निग्रंथ चिद्रूप स्वभाव का अनुभव करते हैं। यह अनन्त चतुष्टयमयी परम ध्रुव स्वभाव निज शुद्धात्मा ही सच्चा देव परमात्मा है, जो तीनों लोक में त्रिकाल शुद्ध स्व - समय निजशुद्धात्मा चैतन्य भगवान देह देवालय में ही रहता है। [56]
SR No.009721
Book TitlePundit Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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