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यह दर्शन की विधि, स्थिति स्थायी हो जाये तो अड़तालीस मिनिट में केवल ज्ञान प्रगट हो जाता है, अभी स्थिरता न होने के कारण उस महा महिमावान परमात्म स्वरुप की महिमा, भक्ति, स्मरण, स्तुति करता है। उसी में रोम रोम उल्लसित हो जाता है, जिससे आनन्द में गद्गद् होकर भक्ति भाव से भजन गाता नृत्य करने लगता है।
प्रश्न- यह पंडित ज्ञानी कैसी स्तुति आराधना करता है इससे इतने आनन्द में रहता है ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं. गाथा (२२)
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उच्चरनं अर्ध सुद्धं च सुद्ध तत्वं च भावना । पंडित पूज आराध्यं, जिन समयं च पूजतं ॥२२॥ अन्वयार्थ - ( उच्चरनं) उच्चारण करते हैं स्तुति प्रार्थना आदि पढ़ते हैं (अर्ध सुद्धं) अर्ध्वगामी शुद्ध स्वभाव (च) और (शुद्ध तत्वं) शुद्धात्म तत्व - सत्स्वरुप (च) और (भावना) निरन्तर स्मरण करना, अन्तर लगन (पंडितो) पंडितों, ज्ञानी जनों (पूज आराध्यं) पूज्य आराध्य (जिन समयं ) जिनेन्द्र परमात्मा शुद्धात्म स्वरूप (च) और (पूजतं) पूजते हैं- पूजा करना। विशेषार्थ ज्ञानी जन शुद्ध चिदानन्द मयी श्रेष्ठ ध्रुव स्वभाव का स्तुति पूर्वक उच्चारण करते हैं। हृदय में ध्रुव स्वभाव की धारणा को दृढ़ता से धारण कर शुद्ध तत्व की भावना भाते हैं। ज्ञानी का पूज्य आराध्य निज शुद्धात्म स्वरूप ही होता है। अपने वीतराग स्व समय शुद्धात्म देव का चिन्तन मनन करना, सच्चा आराधन और ध्रुव धाम का अनुभव करना सच्ची देव पूजा है, जो वर्तमान जीवन को आनन्द परमानन्द में बनाती हैं, और आगे स्वयं परमात्मा बनता है। इस प्रकार पंडित ज्ञानी संसार के जन्म-मरण के दुःखों से छुड़ाने वाली निवारण करने वाली यथार्थ पूजा आराधना करते हैं। - ज्ञानी की स्तुति प्रार्थना
ध्रुव तत्व शुद्धातम तुमको लाखों प्रणाम ।।... ध्रुव धाम के तुम हो अजर,
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तुम हो वासी । अमर, अविनाशी ॥
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परम ब्रह्म परमातम, तुम को लाखों प्रणाम. अनन्त चतुष्टय के तुम धारी । तीन लोक से महिमा न्यारी ॥ सर्वज्ञ पूर्ण परमातम, तुमको लाखों प्रणाम ......... रत्नत्रयमयी अरस अरुपी ।
एक अखंड हो सिद्ध स्वरुपी ॥
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ब्रह्मानन्द परमातम तुमको लाखों प्रणाम. ज्ञानानन्द स्वभाव तुम्हारा । भाव क्रिया पर्याय से न्यारा ॥ चिदानन्द ध्रुव आतम-तुमको लाखों प्रणाम अशरीरी अविकार निरंजन ।
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सब कर्मों से भिन्न भव भंजन ॥
सहजानन्द शुद्धातम- तुमको लाखों प्रणाम सम्यक् दृष्टि ज्ञानी निरन्तर निर्विकल्प अनुभव में नहीं रह सकते इसलिये उन्हें भी भक्ति आदि का राग आता है। ज्ञानी को हेय उपादेय - इष्ट अनिष्ट का विवेक वर्तता है, तथा जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। कारण अपना शुद्धात्म स्वरुप है उसका ही लक्ष्य उसी की आराधना, स्तुति की जा रही है, तो कार्य भी शुद्धात्म स्वरुप परमात्मा होगा। यदि पर का लक्ष्य जड़ की पूजा स्तुति होगी तो वह शुभ भावों की अपेक्षा पुन्य बन्ध का कारण हो सकती है, पर मूल में पर का आलम्बन मिथ्यात्व और जड़ का आलम्बन गृहीत मिथ्यात्व घोर संसार के कारण हैं। इस बात का विवेक सम्यग्दृष्टि ज्ञानी को होता है।
निर्विकल्प आनन्द में ज्ञान पर्याय एकाग्र हो जाये, वह तो श्रेयस्कर इष्ट है ही, परन्तु जब निर्विकल्प आनन्द में न रह सके, तब ज्ञानानुभूति ज्ञानोपयोग, सत्संग, स्वाध्याय, तत्व चर्चा करना, यही शुभोपयोग है । विकथा आदि निन्दनीय प्रवृत्तियों में लगने से तो महान अनर्थ होता है।
पूर्ण गुणों से अभेद ऐसे पूर्ण आत्म तत्व पर दृष्टि करने से उसी के आलम्बन से पूर्णता प्रगट होती है। इस अखंड तत्व का आलम्बन वही एक
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