________________
ही ध्यान समाधि की स्थिति बनती है। जिससे आगे चलकर श्रेणी मांडकर केवलज्ञान अरिहन्त पद प्रगट होता है ।
प्रश्न- यह शुद्ध दृष्टि कैसी होती है
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं।
गाथा (१७)
दिस्टतं सुद्ध दिस्टी च, मिथ्यादिस्टी च तिक्तयं । असत्यं अनृतं न दिस्टंते, अचेत दिस्टिन दीयते || १७||
अन्वयार्थ (दिस्टतं) देखते हैं (सुद्ध दिस्टी) सम्यग्दृष्टि ज्ञानी, जिनकी दृष्टि शुद्ध हो गई है वह अपने ध्रुव स्वभाव शुद्धात्म तत्व को देखते हैं (च) और (मिथ्यादृष्टि) मिथ्या दृष्टि पर की तरफ देखना (च) और ( तिक्तयं) छूट गया है, (असत्यं) जो झूठा असत् (अनृत) क्षण भंगुर नाशवान है ( न दिस्टते) नहीं देखते (अचेत) पुद्गल, जड़ पर वस्तु (दिस्टि न दीयते) दृष्टि ही नहीं देते अर्थात् उस तरफ देखते ही नहीं हैं।
विशेषार्थ ध्रुव स्वभाव के आराधक ज्ञानी, शुद्ध दृष्टि से निज शुद्धात्म स्वरुप को देखते हैं, जिन्हें आत्मानुभूति सहित सम्यक् ज्ञान हुआ है तथा मिथ्यात्व की दृष्टि छूट गई है अर्थात् पर की तरफ देखने का भाव ही नहीं है, पर का महत्व ही खत्म हो गया है। वे हमेशा ज्ञान स्वरुप में निमग्न रहते हुये - विनाशीक झूठी असत् अनृत पर वस्तुओं और अन्तरंग में चलने वाले शुभाशुभ विकारी भावों को नहीं देखते तथा शरीर आदि अचेतन पर पदार्थों में भी दृष्टि नहीं लगाते, उस तरफ ध्यान ही नहीं देते। वे ज्ञानी शुद्ध दृष्टि के धारी ध्रुव स्वभाव के साधक निज परमात्मा के दर्शन करने वाले हैं। ज्ञान की दृष्टि अखंड चैतन्य में भेद नहीं करती, साथ में रहने वाला ज्ञान विवेक करता है कि यह चैतन्य के भाव है, यह पर भाव आदि हैं, शुद्ध दृष्टि अखंड चैतन्य मय समाहित होती है वहां पर भेद ही नहीं है कि यह द्रव्य है और यह पर्याय है वह तो स्वयं प्रभुता सम्पन्न परमात्मा है ।
" पर पर्जय हो दिस्टि न देई सो ममल सुभाए"
जिसने अतीन्द्रिय आनन्द अमृत रस का स्वाद चख लिया हो, उसे
[49]
राग रूप जहर नहीं पुसाता, वह परिणति में विभाव से दूर भागता है। शुद्ध दृष्टि होने पर ज्ञानी का उपयोग बाहर रहे तब भी दृष्टि तो सदा अंत स्थल पर ही लगी रहती है । बाह्य में एकमेक हुआ दिखाई देवे तब भी वह दृष्टि अपेक्षा अपने शुद्धात्म स्वरूप से बाहर निकलता ही नहीं है। यह शुद्ध दृष्टि की विशेषता है और जहां दर्शन और ज्ञान दोनों एक होकर अड़तालीस मिनिट स्वरूप में एकाग्र हुये वहां केवल ज्ञान प्रगट हो जाता है।
साधक दशा तो अधूरी है, साधक को जब तक पूर्ण वीतरागता न हो और चैतन्य आनन्द धाम में पूर्ण रुप से सदा के लिये विराजमान न हो जाये तब तक पुरुषार्थ की धारा तो उग्र ही होती जाती है।
ज्ञान को ऐसी ही भावना होती है कि उसका वश चले, पुरुषार्थ काम करे, तो वह अपने में लीन होकर केवल ज्ञान प्राप्त कर ले, इतनी छटपटाहट उत्साह वर्तता है और इसी भावना से अन्तर में अभय रहते हैं किसी से डरते नहीं हैं स्वभाव में सुभट हैं। किसी कर्मोदय उपसर्ग का भय नहीं है, दृष्टि तो अन्तर में है, चारित्र में अपूर्णता है ।
प्रश्न- जब ज्ञान की शुद्धि हो गई, और दृष्टि की शुद्धि हो गई सम्यक्दर्शन है ही फिर चारित्र में अपूर्णता क्यों है - कैसी है ?
समाधान- द्रव्य तो स्वभाव से त्रिकाल शुद्ध ही है, गुण भी शुद्ध हैं, मात्र पर्याय में अशुद्धि है और उसमें निमित्त कारण अज्ञान जनित पूर्व कर्म बन्धोदय है। ज्ञानी ने भेद ज्ञान द्वारा निज पर के स्वरूप को यथार्थ जान लिया है, द्रव्य पर्याय के स्वरूप को भी जानता है, भेद ज्ञान तत्व निर्णय द्वारा ज्ञान की शुद्धि कर ली है, और वस्तु स्वरूप से दृष्टि भी शुद्ध हो गई, अब ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग में कोई भ्रम भ्रांति नहीं रही। पर पर्याय के प्रति कोई आकर्षण, राग द्वेष नहीं रहा। परन्तु जब तक पर्याय में अशुद्धि है यही चारित्र की अपूर्णता है पर्याय की पूर्ण शुद्धता होना ही केवल ज्ञान, अरिहन्त पद है । जहाँ जीव द्रव्य गुण पर्याय सहित परिपूर्ण शुद्ध हो जाता है। पौद्गलिक शरीरादि कर्मों का संयोग छूटने पर सिद्ध हो जाता है। इस चारित्र की अपूर्णता का कारण पर्याय की अशुद्धता है। उसका निमित्त कर्म बन्धोदय है। अब ज्ञानी का जितना पुरुषार्थ काम करता है अर्थात् शुद्धोपयोग होता है उतनी पर्याय में शुद्धि होती है। इसी से पूर्व कर्म बन्धोदय
[50]