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कहीं विश्रांति नहीं है। अपना चैतन्य गृह - चैत्यालय ही सच्चा विश्रांतिगृह है। ज्ञानी इसी में प्रवेश करके विशेष विश्राम पाते हैं।
सम्यकदर्शन होते ही जीव - चैत्यालय रूप जिन मन्दिर का स्वामी बन गया, वह अपने जिन मन्दिर चैत्यालय में ही निवास करता है। तीव्र पुरुषार्थी को अस्थिरता रूप कचरा निकालने में कम समय लगता है। मंद पुरुषार्थी को अधिक समय लगता है, परन्त दोनों ही अल्प- अधिक समय में कचरा निकाल कर स्वयं जिनेन्द्र परमात्मा बनेंगे।
ज्ञानी ने शुद्ध ज्ञान के जल में स्नान कर मिथ्यात्व , शल्य, राग, द्वेष, अनन्तानुबंधी कषाय आदि समस्त दोषों को प्रक्षालित अर्थात् धोकर साफ कर दिया है, तथा आध्यात्मिक शुद्ध स्वभाव दश लक्षण धर्म के वस्त्र, रत्नत्रय के आभूषण, वीतराग दशा रुप समतामयी मुद्रिका धारण कर ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव का मुकुट बांध लिया है। समस्त पाप आरम्भ परिग्रह को त्याग कर ज्ञानी साधु पद पर स्थित हो गया है, और निज शुद्धात्म देव के दर्शन करने हृदय उल्हस रहा है, भीतर निर्विकल्प निजानन्द में लीन रहने के लिये छटपटा रहा है। इसलिये मन बुद्धि आदि के समस्त विकल्पों को तोड़करवीतरागी संयमी ज्ञानी अपने अन्तरंग के चैत्यालय में निज शुद्धात्म देव का दर्शन करने को तैयार हुआ है। ज्ञान की शुद्धि पूर्वक वस्तु स्वरुप का निर्णय किया - पर्याय में शुद्धि आई, पात्रता बढ़ी, बाह्य कर्मोदय संयोग की अनुकूलता मिलने पर यह स्थिति बन गई , पर अभी निज शुद्धात्म देव के दर्शन करने के लिये दृष्टि की शुद्धि भी आवश्यक है। जब तक शुद्ध दृष्टि न होगी - परमात्मस्वरुप अनुभूति में कैसे आयेगा ? अन्तर तल में उतरने के लिये दृष्टि की पवित्रता- शुद्धि भी आवश्यक है, जिससे वह अपने परमात्मा को स्पष्ट देख सके। प्रश्न - दृष्टि की शुद्धि का प्रयोजन क्या है? समाधान - जब जीव की पात्रता पकती है। करण लब्धि पूर्वक काललब्धि आती है, श्रद्धा गुण की निर्मल पर्याय से मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय का उपशम-क्षय-क्षयोपशम होने पर जीव को अपने सिद्ध स्वरुप परमात्म तत्व की अनुभूति होती है। इसी को सम्यक्दर्शन कहते है। सम्यक्वर्शन होने के बाद पच्चीस मल दोषों
के दूर होने से सम्यक्त्व की शुद्धि होती है, जिससे मैं आत्मा - शुद्धात्मा - परमात्मा हूँ यह शरीरादि मैं नहीं है, ये मेरे नहीं है। ऐसा स्पष्ट भेदज्ञान रुपबोध हो जाता है। मुझे सम्यकदर्शन हो गया इसका पक्का निर्णय हो जाता है यही सम्यक्त्व की शुद्धि है। अब चेतना का दर्शन - ज्ञान रुप उपयोग जो अभी तक शरीरादि कर्मों में ही एकमेक था - इनसे भिन्न हो जाता है, पर अनादि अज्ञानी होने से शरीरादि संयोग और शुभाशुभ भाव यह क्या हैं? कहां से होते है ? कौन कर्ता है ? आदि अज्ञान जनित भ्रम रहता है, जिसको सद्गुरु व जिनवाणी के माध्यम से अपनी बुद्धि पूर्वक अनुभव करता हुआ ज्ञान की शुद्धि करता है, और जब सब संशय-विभ्रम-विमोह दूर हो जाते हैं तब सम्यक् ज्ञान ज्योति प्रगट होती है। यही ज्ञान की शुद्धि है। इसके होने पर एकत्व - अपनत्व कर्तृत्व भाव बिला जाते हैं। ज्ञायक स्वरुप प्रगट हो जाता है। यही समयसार रुप ज्ञान समुच्चयसार है। यही ज्ञानी का ज्ञान में स्नान और प्रक्षालन करने की सार रुप स्थिति है इसी को सम्यकदष्टि ज्ञानी कहते हैं। अब किसी भी क्रिया-भाव- पर्याय में एकत्व अपनत्व - कर्तृत्व नहीं रहा, मैं धूव तत्व शुखात्मा और एकएक समय की चलने वाली पर्याय तथा पूरे जगत का त्रिकालवर्ती परिणमन क्रमबद्ध निश्चित - अटल है, ऐसा अनुभूतियुत निर्णय स्वीकारता में आ जाता है। धूव स्वभाव की साधना - ज्ञानोपयोग करने से पर्याय में शुद्धि आती है। कर्मोदय बदलते हैं। कर्मोदय की अनुकूलता मिलने पर वह आगे बढ़ता है। अर्थात् दश धर्म के वस्त्र, रत्नत्रय के आभूषण - समता भावमयी जिन मुद्रा धारण कर ज्ञानमयी घुव स्वभाव का मुकुट बांधता है, और निज परमात्मा के दर्शन करने अर्थात् निज स्वभाव ममल भाव में रहने की तैयारी करता है। यहां वर्शन उपयोग की शुद्धि आवश्यक है। अभी तक ज्ञानोपयोग की शुद्धि हुई जो विकल्प रहित - ज्ञायक भावमय हो गया। अब वर्शन उपयोग में जो पर्याय पर भाव कर्म संयोग संसार आदि दिखाई देते है, इनमें न उलझे - चक्षु - अचक्षु दर्शन शुद्ध होवें, जिससे निरन्तर अपना शुद्ध चैतन्य शुद्धात्म तत्व ही विखे यह दृष्टि की शुद्धि है और इसके होने पर
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