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योग्यता आदि के विचार पूर्वक ही आगे बढ़ता है। जब यह सब शुद्धि
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हो जाती है तो अब वह वस्त्राभूषण पहनता है। सज धज कर तैयार होता है।
प्रश्न- वीतराग मार्ग में तो वस्त्राभूषण उतारे जाते हैं- यह ज्ञानी कौन से वस्त्राभूषण पहनता है ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं ....... गाथा (१६)
वस्त्रं च धर्म सद्भावं आभरणं रत्नत्रयं । मुद्रिका सम मुद्रस्य, मुकुटं न्यानं मयं धुवं ॥ १६॥
अन्वयार्थ (वस्त्रं) वस्त्र कपड़े, (च) और (धर्म सद्भावं) शुद्ध स्वभाव रूपी, चैतन्य लक्षण मयी निज स्वभाव धर्म है (आभरणं) आभूषण गहने (रत्नत्रयं) रत्नत्रय, सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्रमयी, (मुद्रिका) अंगूठी मुद्रिका (सम मुद्रस्य) समताभाव की मुद्रिका, समदृष्टि हो जाना अथवा जिनेन्द्र के समान, जिन मुद्रा धारण करना (मुकुटं ) मुकुटताज (न्यानंमयं) ज्ञानमयी जो (धुवं) ध्रुव स्वभाव निश्चल अटल है।
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विशेषार्थ - ज्ञानी अपने शुद्ध स्वभाव रूपी धर्म के वस्त्रों को धारण करता है। तथा रत्नत्रय के अनुपम आभूषणों से संयुक्त होकर अवर्णनीय शोभा को प्राप्त हुआ अतीन्द्रिय आनन्द में डूबता हुआ, ज्ञानी अपने ध्रुव स्वभाव में रमण करने को सदा उत्साहित रहता है।
साधु पद पर प्रतिष्ठित होकर ज्ञानी वीतराग दशा रूप समता मयी मुद्रिका अंगूठी धारण करता है, फिर उसे कुछ भी अच्छा बुरा नहीं लगता, समभाव में समदृष्टि हो जाता है। समस्त आभूषणों सहित ज्ञानी सिद्ध स्वरूपी शुद्ध ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव का मुकुट लगाता, धारण करता है।
ज्ञानी को बाहर की क्रिया अपवाद मार्ग का या उत्सर्ग मार्ग का आग्रह नहीं होता, और न बाह्य में भेष को कल्याणकारी मानता, यह तो पुद्गल की पर्याय का परिणाम है। जो तत् समय की योग्यतानुसार स्वयं परिणमित होती है, परन्तु जिससे अपने परिणाम में आगे बढ़ा जा सके, निर्विकल्प - निजानन्द की दशा बने, उस मार्ग को ग्रहण करते हैं। सहज दशा को विकल्प करके नहीं बनाये रखना पड़ते, साधु सहज सामान्य दशा है, यदि विकल्प [45]
करके बनाये रखना पड़े, तो वह सहज दशा ही नहीं है।
अन्तर शोधन द्वारा प्रगट हुई दशा को बनाये रखने का कोई अलग पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता क्योंकि जहां पर्याय में शुद्धि आती है, आत्म स्वरूप में लीनता रूप पुरुषार्थ काम करता है। वहां बाह्य दशा तो सहज ही बनी रहती है।
साधक दशा में शुभाशुभ भाव बीच में आते हैं। परन्तु साधक उन्हें छोड़ता जाता साफ करता जाता है, अपने ध्रुव स्वभाव का लक्ष्य नहीं छोड़ता । ज्ञानी को दृष्टि अपेक्षा से चैतन्य एवं राग की अत्यन्त भिन्नता भासती है यद्यपि वह ज्ञान में जानता है कि राग चैतन्य की पर्याय में होता है, परन्तु वह उसका भी ज्ञायक रहता हैं।
बाह्य क्रिया में आत्मिक आनन्द नहीं है। आत्मिक आनन्द तो अन्तर में ही भरा है, जो ऐसे अतीन्द्रिय आनन्द अमृत सरोवर में डुबकी लगाते हैं, उसमें गहरे गहरे उतरते हैं, उन्हें फिर बाहर आना अच्छा नहीं लगता, पुसाता नहीं। मजबूरी- पुरुषार्थ की आसक्ति के कारण बाहर आना पड़ता है, तो ज्ञान - ध्यान में ही लीन रहते हैं। संसारी प्रपंच सामाजिक व्यवहारशिष्य आदि का विकल्प फिर पुसाता नहीं है। वह तो प्रमत्त अप्रमत्त स्थिति का झूला झूलते हैं । अन्दर जायें तो अतीन्द्रिय आनन्द - परमानन्द में मगन होते हैं, और बाहर आयें तो तत्व चिन्तन कर उसी आनन्द को बार बार ज्ञानानुभूति में लेते है।
साधक दशा इतनी बढ़ गई है कि द्रव्य से तो परिपूर्ण शुद्ध हैं ही, परन्तु पर्याय में भी शुद्धि प्रगट होकर पर्याय भी कृत्य कृत्य हो रही है।
ज्ञानी ऐसे निज चैतन्य स्वरुप शुद्ध स्वभाव रूपी धर्म के वस्त्र पहनता है । रत्नत्रय के आभूषण धारण करता है। समता भावमयी जिन मुद्रा रूप मुद्रिका धारण करता है, तथा ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव का मुकुट बांधता है और मुक्ति श्री से मिलने परमात्मा का दर्शन करने के लिये तैयार होता है। अज्ञानी जीव को अनादि काल से विभाव का अभ्यास है उसी रूप ढलता रहता है । ज्ञानी को स्वभाव का अभ्यास वर्तता है । स्वयं ने अपनी सहज दशा प्राप्त की है।
विभावों में और पंच परावर्तन रूप द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव में
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