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निर्जरित क्षय होते जाते हैं। जैसी पात्रता बढ़ती है, वैसे ही मुक्ति की ओर अग्रसर होता जाता है, इसी को सम्यकचारित्र कहते हैं। प्रश्न - इसके लिए ज्ञानी को क्या पुरुषार्थ करना पड़ता है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं...........
गाथा (१८) दिस्टतं सुख समयं च, समिक्तं सुद्धं धुवं । न्यानं मयं च संपूरन, ममल विस्टी सदा बुधै।।१८।।
__ अन्वयार्थ - (दिस्टतं) देखता है(शुद्ध समयं) शुद्धात्म स्वरुप को (च) और (संमिक्तं) सम्यक्त्व(शुद्ध) शुद्ध है (धुवं) निश्चित, अटल ध्रुव धाम है। (न्यानं मयं) जो ज्ञान मयी, ज्ञान मात्र (च) और (संपूरनं) परिपूर्ण है (ममल दिस्टी) ममल, शुद्ध, सारे रागादि मलों से मुक्त, परम शुद्ध दृष्टि (सदा) सदैव, हमेशा, निरन्तर (बुधै) ज्ञानी।
विशेषार्थ - ज्ञानी शुद्ध स्व समय निज शुद्धात्म स्वरुप निर्विकार स्वभाव को देखते हैं। जो सम्यक्त्व से शुद्ध तथा समस्त कर्म मलों से रहित परिपूर्ण शुद्ध ज्ञानमयी-ध्रुव धाम है। इसी शुद्ध चिद्रूपी ममल स्वभाव में ज्ञानी अपने उपयोग को लगा कर चैतन्य चमत्कारमयी सदैव शुद्ध समयसार निज ममल स्वभाव को अनुभवते - देखते हैं अर्थात् प्रत्यक्ष स्व संवेदन करते हैं। उसी में लीन रहते हैं यही ज्ञानी का पुरुषार्थ है, जोशुद्धोपयोग कहलाता है।
जब जीव निज ज्ञानानन्द स्वभाव का अनुभव करने में समर्थ हुआ, अर्थात् सम्यक्वर्शन सम्यक्ज्ञान रुप समयसार मय हो गया, तब से समस्त जगत का साक्षी हो जाता है। परवस्तु अर्थात् शरीरावि बाह्य जगत तो पर है ही. अपनी एक समय की चलने वाली पर्याय भी पर है भिन्न है, इससे अपनत्व कर्तृत्वभाव छूटने से वह उसका साक्षी हो गया।
पर पर्याय से एकत्व भाव का छूठमा सम्यग्दर्शन और - अपनत्व कर्तृत्व भाव का छूटना ही सम्यग्ज्ञान है।
जबसे ध्रुव को ध्यान में लेकर आत्म अनुभव हुआ - तब से वह जीव पूर्णानन्द स्वरुपको उपादेयजानने से रागादिरुप उठने वाले विकल्पों के प्रति उदासीन रहता है।
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दृष्टि, स्वभाव रुप परिणत होना, पर की रुचि छूटकर निज शुद्धात्म स्वरुपममल स्वभाव की रुचि हो जाना ही शुद्ध दृष्टि है।
रुचियं ममल सहावं, संसारे तरण मुक्ति गमनं च ॥
रुचि अनुगामी पुरुषार्थ होता है। सम्यक् ज्ञानी का पुरुषार्थ जाग जाता है, पांच समवाय का ज्ञाता ज्ञानी अपना पुरुषार्थ करता है, और जानता है कि सम्यक् चारित्र केवल ज्ञान आदि जिस समय प्रगट होने वाले हैं उसी समय प्रगट होंगे, इसलिये उसे कोई अधीरता नहीं होती, समता भाव से अपना काम अपने में करता जाता है।
ज्ञानी की चौथे - पांचवे गुणस्थान में शुद्ध दृष्टि होती है, पर शुद्धोपयोग सदा नहीं होता - स्वरुप में लीन होने पर बुद्धि पूर्वक राग का अभाव होना ही शुद्धोपयोग है।
ज्ञानी, पुरुषार्थ गुण को अलग करके कार्य नहीं करते, ज्ञानानन्द स्वभाव के आश्रयसे सहजशुद्धोपयोग होता जाता है।
मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ, ऐसे स्वभाव की श्रद्धा ज्ञान पूर्वक जितना वीतराग भाव हुआ उतना शुद्धोपयोग है, उससे हटे या उसी समय जो रागांश है वह आश्रव है।
ज्ञान का मार्ग कृपाण की धारा - बड़ा सूक्ष्म निरालम्ब का मार्ग है। निर्विकल्प दशा में यह ध्यान है, यह ध्येय है ऐसे विकल्प टूट जाते हैं। वहां कोई भेद रहता ही नहीं है। जिन परम पैनी सुबुद्धि छैनी, डारि अन्तर भेदिया । वरणादि अरु रागादि तें, निज भाव को न्यारा किया । निज माहिं निज के हेतु निजकर, आपको आपै गयो । गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय, मंझार कछु भेव न रह्यो । जहां ध्यान ध्याता ध्येय को, न विकल्प वच भेद न जहाँ । चिदभाव कर्म चिदेश कर्ता, चेतना किरिया तहाँ । तीनों अभिन्न अखिन्न, शुद्धोपयोग की निश्चल दशा। प्रगटी जहां दृग - ज्ञान - वत ये, तीनधा एकै लसा ।। परमाण नय निक्षेप को, न उद्योत अनुभव में दिखे । दृग, ज्ञान, सुख, बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो विखे ॥
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