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में शोधन स्नान-ध्यान पूजा पाठ करता है, वैसा ही ज्ञानी अन्तर में शोधन स्नान ज्ञान ध्यान पूजा पाठ करता है।
प्रश्न- ज्ञानी का अन्तर शोधन स्नानादि कैसा होता है ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं........
गाथा (८)
देवं गुरुं श्रुतं वन्दे, धर्म सुद्धं च विन्दते । तिअर्थ अर्थ लोकंच, अस्नानं च सुद्धं जलं ॥८॥
अन्वयार्थ - (देवं) देव को (गुरु) गुरु को (श्रुतं) शास्त्र जिनवाणी को (वन्दे) वंदना करना ( धर्म शुद्धं) शुद्ध धर्म निज शुद्धात्म स्वरुप (च) और (विन्दते) अनुभव करते (तिअर्थ) रत्नत्रय (अर्थ) प्रयोजनीय (लोकं) लोक में (च) और (अस्नानं) स्नान करते हैं (च) और (शुद्धं जलं) शुद्ध जल में ।
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विशेषार्थ - चिदानन्द मयी शुद्धात्म स्वरुप जो सच्चा देव, गुरु, शास्त्र है उसकी वंदना करता हुआ ज्ञानी पंडित अपने शुद्ध स्वभाव रूपी धर्म की अनुभूति करता है, और जगत में इष्ट प्रयोजनीय, रत्नत्रय स्वरूप के शुद्ध जल में स्नान करता है।
आत्मा की प्रभुता की महिमा भीतर परिपूर्ण है। अनादि काल से उसकी सम्यक् प्रतीति के बिना उसका अनुभव नहीं हुआ, अनादि काल से पर लक्ष्य किया है किन्तु स्वभाव का लक्ष्य नहीं किया, शरीरादि में आत्मा का सुख नहीं है। शुभ राग में भी सुख नहीं है और मेरा स्वरुप शुभराग से रहित है। ऐसे भेद के विचार में भी सुख नहीं है। और मेरा स्वरुप शुभ राग से रहित है। ऐसे भेद के विचार में भी सुख नहीं है। इसलिये उस भेद के विचार में उलझना भी अज्ञानी का कार्य है, इसलिये उस नय पक्ष के भेद का आश्रय छोड़कर अभेद स्वभाव की अनुभूति में डूबना ही ज्ञानी का स्नान है। लौकिक व्यवहार में अशुद्धता को दूर करने के लिये स्नान करते हैं। पवित्र होने, शुद्ध होने के लिये नदी आदि के जल में स्नान करते हैं, स्नान करने से शुद्धता और शान्ति ( बड़ी हल्की तबियत ) हो जाती है।
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यहां अन्तर शोधन शुद्ध स्वभाव की उपलब्धि - पूर्णता के लिये ज्ञानी अपने रत्नत्रय स्वरूप के शुद्ध जल में स्नान करता है। अपने पूर्णानन्द नाथ की अनुभूति में डुबकी लगाता है।
अखंडानन्द अभेद आत्मा का लक्ष्य नय पक्ष के द्वारा नहीं होता । नय पक्ष की विकल्प रूपी मोटर चाहे जितनी दौड़ाई जाये, मैं ज्ञायक हूँ, अभेद हूँ, शुद्ध हूँ, ऐसे विकल्प करें फिर भी वे विकल्प स्वरूप के आंगन तक ही ले जायेंगे, किन्तु स्वरुपानुभव के समय तो वे सब विकल्प ही छूट जाते हैं। विकल्प को लेकर स्वानुभव नहीं हो सकता। जब तक किनारे पर खड़े हैं या कपड़े उतार कर नदी के पानी में खड़े हैं, तब तक स्नान नहीं होता डूबना, डुबकी लगाना ही स्नान है। इसी प्रकार नय पक्षों का ज्ञान स्वरूप के आंगन में पहुंचने के बीच में आता है। मैं स्वाधीन ज्ञान स्वरुपी आत्मा हूँ। कर्म जड़ हैं जड़ कर्म मेरे स्वरूप को नहीं रोक सकते, यदि मैं विकार करूं तो कर्म निमित्त कहलाते हैं किन्तु कर्म मुझे विकार नहीं कराते क्योंकि कर्म और आत्मा में परस्पर अत्यंत अभाव होने से दोनों द्रव्य भिन्न हैं। वे कोई एक दूसरे का कुछ नहीं कर सकते, किसी भी अपेक्षा में जड़ का कुछ नहीं करता, और जड़ मेरा कुछ नहीं करता, जो राग द्वेष होते हैं उन्हें भी कर्म नहीं कराता तथा वे परवस्तु में नहीं होते किन्तु मेरी अवस्था में होते हैं, वे राग द्वेष मेरा स्वभाव नहीं है। निश्चय से मेरा स्वभाव रागरहित ज्ञान स्वरूप है।
इस प्रकार सभी पहलुओं (नयों) का ज्ञान पहले कर लिया है। किन्तु इतना करने तक भी भेद का आश्रय है। भेद के आश्रय से अभेद आत्मस्वरुप का अनुभव नहीं होता, फिर भी पहले उन भेदों को जानना आवश्यक है। जब इतना जान लेता है तब वह स्वरूप के आंगन तक (नदी के बीच तक) पहुंचा हुआ कहलाता है, उसके बाद जब वह स्व सन्मुख अनुभव द्वारा अभेद स्वरूप में डूबता है यही रत्नत्रय के शुद्ध जल में स्नान करना कहलाता है। और यही कहा भी है
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अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत् परमात्मानं स बाह्याभ्यन्तरे शुचिः।।
जो वस्तु है सो स्वतः परिपूर्ण स्वभाव से भरी हुई है। आत्मा का स्वभाव परापेक्षा से रहित एक रूप है। मैं कर्म संबंध वाला हूँ या कर्मों के संबंध
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