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________________ जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्ध पुट्ट अणण्णमविशेसं। अपदेस सन्त मज्झं, पस्सदि जिण सासणं सव्वं ।।१५।। जो पुरुष आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष,नियत और असंयुक्त देखता (अनुभवता) है, वह सर्व जिन शासन को देखता (अनुभवता) है, जो जिनशासन बाह्य - द्रव्य श्रुत तथा आभ्यंतर ज्ञान रूप भावश्रुत वाला है। सम्यग्दृष्टि जीव (द्रव्य दृष्टि से) अपने आत्मा को परिपूर्ण व शुद्ध मानता है, तथा उसे ही (पर्याय दृष्टि से ) सर्वस्व रूप से उपादेय जानता है। ऐसासम्यक दृष्टिकोण ही समस्त द्रव्य श्रुत का केन्द्र स्थान है। उसे इस प्रकार वह स्यात् पद से समीचीन समझता है अर्थात् ग्रहण करता है। सम्यक् दृष्टि को अपने अनन्त चतुष्टय मण्डित शुद्धात्मा का जो अतीन्द्रिय सहज प्रत्यक्ष स्वानुभव वर्तता है वही भाव श्रुतज्ञान है। उसने इस ही अनुभव ज्ञान की जाति से पूर्ण ज्ञान की जाति को पहचाना है, अर्थात् उसको केवल ज्ञान रूप स्वभाव के अवलम्बन से भावथत ज्ञान प्रस्फुटित हुआ है। ज्ञानी धर्मात्मा के ज्ञान में समीचीनता वर्तती है। उनमें सद्धर्मतीर्थ सम्बन्धित प्रत्येक प्रवृत्ति के शोधन की क्षमता रहती है। उनके पास प्रकृष्ट विवेक रूप सम्यक् नेत्र होते हैं, जिससे ज्ञानी धर्मात्मा के सर्व आशय व प्रवृत्ति निर्दोष व न्याय शुद्ध होती है। जो जीव संसार के त्रिविध तापसे संतप्त हुआ हो और वैसी स्थिति उसे असह बन पड़ी है तथा जिसे रंच मात्र कषाय कलंक नहीं सुहाता हो, जिससे उसे पूर्ण निष्कलंक होने की उत्कृष्ट भावना वर्तती हो, ऐसे आत्माओं के उद्धार व आश्रय हेतु एक मात्र कल्पद्रुम (कल्पवृक्ष) तुल्य यह शुद्ध अध्यात्म ज्ञान मार्गही आश्रय रूप है। ज्ञानी धर्मात्मा को भी पूजा भक्ति आदि के भाव आते हैं, परन्तु उनकी दृष्टि राग रहित ज्ञायक आत्मा पर रहती है। उन्हें धर्म का भान सतत् वर्तता रहता है। अंतरंग में वीतरागी आत्मा का लक्ष्य हो और बाह्य में जड़ अचेतन को इष्ट माने, उसकी भक्ति करे, यह कैसे बन सकता है क्योकि जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। अतः [25] अन्तरशुद्ध चिदानन्द स्वरुप को जानकर उसे प्रगट किये बिना जन्ममरण टलने वाला नहीं है, इसलिये अपने चैतन्य गुणों को प्रगट करने के लिए अपने परमात्म स्वरुप की भक्ति आराधना करते हैं। प्रश्न - यह भक्ति आराधना तो व्यक्तिगत अन्तरंग है। इसका समाज से क्या संबंध है? इसे दूसरा क्या जाने, फिर और सब जीव कैसा क्या करें? समाधान - धर्म मुक्ति मार्ग तो व्यक्तिगत होता ही है। इसमें एक जीव का दूसरे जीव से कोई सम्बंध नहीं है जो जैसा करेगा, उसका वैसा फल वही भोगेगा, परन्तु अध्यात्म दृष्टि बनाकर ज्ञान मार्ग की साधना सभी जीव कर सकते हैं। इसमें कोई विरोध भी नहीं है। उपलब्धि - स्थिति अपनी पात्रता और पुरुषार्थ के अनुसार होगी लेकिन लक्ष्य और उपाय एकसा किया जाता है, किया जा सकता है। जैसे और सारे - व्यवहारिक धन्धा, खेती आदि कार्य भी एक साथ एकसे किये जाते हैं, वहां भाग्य अनुसार उपलब्धि होती है। धर्म मार्ग में पात्रता और पुरुषार्थ अनुसार उपलब्धि होती है। परन्तु यदि शुद्ध कारण है तो शुद्ध कार्य होगा- सम्यक सही मार्ग है तो अपनी मंजिल लक्ष्य पर अवश्य पहुंचेगा । यदि विपरीत होगा, तो उसका परिणाम भी विपरीत होगा। यह बात सोचने समझने निर्णय करने का सौभाग्य मनुष्य को मिला है। मन, बुद्धि का होना ही मनुष्य की विशेषता है। इसमें जाति-पांति, नीचऊँच, छोटे-बड़े, गरीब-अमीर की बात ही नहीं है। यह स्वतंत्रता हर मनुष्य को है कि वह अपने स्वरुप के बारे में सोचे समझे, अपने भविष्य का निर्णय करे लेकिन यहां एक भूल हो जाती है कि मनुष्य कर्म के बारे में विचार करता हैजहां वह परतंत्र है, और धर्म के संबंध में विचार नहीं करता जहां वह स्वतंत्र है। यहां पराधीन जाति सम्प्रदाय से बंधा रहता है। बस यही भूल दुर्गुति और दुःख का कारण है। हम अपने स्वरुपके बारे में स्वयं विचार करें, सच्चे देव, गुरु, शास्त्र क्या कहते हैं। मुक्ति का मार्ग क्या है ? इसका स्वयं निर्णय करके उस मार्ग पर चलें। अनन्त ज्ञानियों का एक मत होता है तथा एक अज्ञानी के अनन्त मत होते हैं। अध्यात्मवादी ज्ञान मार्ग के पथिक बाह्यक्रियाकांड में नहीं उलझते, व्यवहारिक आचरण तो सहज चलता है। यहां तो सत्संग स्वाध्याय ज्ञान - ध्यान - तत्व- चर्चा ही प्रमुख रहती है। जैसा संसारी जीव [26]
SR No.009721
Book TitlePundit Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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