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से रहित हूँ ऐसी अपेक्षाओं से आत्मा का आश्रय नहीं होता, यद्यपि आत्म स्वभाव तो अबंध ही है, किन्तु मैं अबन्ध हूँ - ऐसे विकल्प को भी छोड़कर निर्विकल्प ज्ञाता दृष्टा निरपेक्ष स्वभाव का आश्रय होने पर ही उसकी अनुभूति में डूबा जाता है।
एक बार निर्विकल्प होकर अंखड ज्ञायक स्वभाव को लक्ष्य में लिया कि वहाँ सम्यक् - प्रतीति हो जाती है। अखंड स्वभाव का लक्ष्य ही स्वरुप की शुद्धि के लिये कार्यकारी है।
अखंड सत्य स्वरुपको जाने बिना, श्रद्धा किये बिना,मैं ज्ञान स्वरुप आत्मा हूँ अबद्ध स्पष्ट हूँ - इत्यादि विकल्प भी स्वरुप की शुद्धि के लिये कार्यकारी नहीं है। एक बार अखंड ज्ञायक स्वभाव का संवेदन - लक्ष्य किया कि फिर जो वृत्ति उठती हैं, वे शुभाशुभ वृत्तियां अस्थिरता का कार्य करती हैंकिन्तु वे स्वरुप के रोकने में समर्थ नहीं है, क्योंकि श्रद्धा तो नित्य विकल्प रहित होने से जो वृत्ति उद्भूत होती है, वह श्रद्धा को नहीं बदल सकती।
यदि कोई विकल्प में ही रुक गया तो वह मिथ्या दृष्टि है।
जब सम्यग्दृष्टि जीव अपने आत्मा में स्थिर होता है तब उसके निर्विकल्प दशा होती है। तब राग के साथ बुद्धि पूर्वक सम्बन्ध नहीं होता, जैसे- जब नदी में डबकी लगाते हैं उससमय किसी का भान या कोई विकल्प नहीं होता - इसी प्रकार शुद्ध अनुभव होने पर द्वैत ही भासित नहीं होता - केवल एकाकार चिन्मात्र ही दिखाई देता है।
अनादि काल से आत्मा के अखंडरसको सम्यकदर्शन के द्वारा नहीं जाना, इसलिये जीव पर में और विकल्प में रसमान रहा है, किन्तु मैं अखंड एक रूप स्वभाव शुद्ध चैतन्य हूँ उसी में मेरा रस है वही ज्ञानानन्द स्वभावी परमतत्व परमात्मा अतीन्द्रिय आनन्द का सागर है। इस प्रकार स्वभाव दृष्टि के बल से जो अपने अन्तर में उतरता है, उसे सहजानन्द स्वरुप के अमृत रस की अपूर्व शान्ति का अनुभव होता है। और जब ऐसे रत्नत्रयमयी सुख परम शान्ति - परमानन्द के धाम निज चैतन्य रत्नाकर में डुबकी लगाता है, तो अमृत रस झरता है और ध्रुव स्वभाव से पर्याय में शुद्धता प्रगट होती है। ज्ञानी ऐसे रत्नत्रय के शुद्ध जल में स्नान कर अपने को पवित्र - निर्मल शुद्ध करता है।
शुद्धात्म स्वरुप का वेदन कहो - ज्ञान कहो- श्रद्धा कहो- चारित्र कहो- अनुभव कहो या साक्षात्कार कहो - जो कहो सो यह एक आत्मा ही है। यही देव गुरु धर्म है। इसी में लीन होने स्नान करने से परमात्म पद प्रगट होता है। इसी में बार-बार डुबकी लगाने से परमानन्द की उपलब्धि होती है। जैसे नदी में स्नान करने वाला बार - बार डुबकी लगाता है और अपने आप में मस्त प्रसन्न होता है उछलता है,डूबता है, ऐसे ही पंडित ज्ञानी जन अन्तर में डुबकी लगाते हैं । अभी इतनी शक्ति पात्रता नहीं है कि उसी में लय हो जाये, इसलिए नाना विधि से विविध प्रकार से स्नान करते हैं। प्रश्न - पंडित ज्ञानी और किस प्रकार से स्नान करता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं
गाथा (९) चेतना लष्यनो धर्मों, चेतयन्ति सदा बुधै। ध्यानस्य जलं सुद्धं, न्यानं अस्नान पण्डिता॥९||
अन्वयार्थ - (चेतना लष्यनो) चैतन्य लक्षण - शुद्धात्मस्वभाव ही (धर्मो) धर्म है ( चेतयन्ति) चिन्तवन करता है। (सदा) सदैव, हमेशा (बुधै) ज्ञानी जन - पंडित (ध्यानस्य) ध्यान के ( जलं सुद्ध) शुद्ध जल में (न्यान) ज्ञान (अस्नान) स्नान करता (पण्डिता) पंडित ज्ञानी जन।
विशेषार्थ- अपना चैतन्य लक्षणमयी, त्रिकाली ध्रुव स्वभाव धर्म है। जिन्हें अपने चिद्रूपी स्वभाव की यथार्थ पहिचान है , वे ज्ञानी जन हमेशा चैतन्य स्वरुप का अनुभव करते हुए देखते हैं, कि मेरा धुवधाम सिद्ध परमात्मा के समान शुद्ध है, इसी निज स्वभाव में अपना उपयोग एकाग्र कर महान चैतन्य का अवलोकन करते हैं तथा शुद्धात्म स्वरुपके ध्यान में स्थिर होकर ज्ञानी शुद्ध ज्ञान के जल में स्नान करते हैं।
ज्ञानी ने चैतन्य का अस्तित्व ग्रहण किया है। अभेद में ही दृष्टि है, मैं तो ज्ञानानन्द मय शुद्धात्मा हूँ - उसे विश्रांति का महल मिल गया है। जिसमें अनन्त आनन्द भरा है। शान्ति का स्थान, आनन्द का स्थान, ऐसा पवित्र उज्जवल आत्मा है, वहां ज्ञायक रहकर ज्ञान सब करता है अर्थात् स्वपर को जानता है परन्तु दृष्टि तो अभेद निज चैतन्य स्वरुप पर ही है, वह
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