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ठठा कहें आठ ठग पाए, ठगत ठगत अब के कर आए। ठग को त्याग जलांजुलि दीजे, ठाकुर है के तब सुख लीजे ॥ डडा कहें डंक विष जैसो, डसें मोह भुजंग है तेसो । डार्यो विष गुरु मंत्रेना यो, डर सब त्याग मनहि समझायो । ढढा कहे ढील नहिं कीजे, ढूंढि ढूंढि चेतन गुण लीजे। ढिंग तेरे है ज्ञान अनंत, ढके मिथ्यात ताहि कर अंत ।।
भभा कहे भरम के संग, भूलि रहे चेतन सरवंग । भाव अज्ञान वहें करि दूर, भेदज्ञान ते पर दल चूर ॥ ममा कहे मोह की चालि, मेटि सकल यह पर जंजाल । मानहु सदा जिनेसुर बैन, मीठे मनहु सुधा ते अॅन । जजा कहे जैन धर्म गहो, यो चेतन पंचमगति लहो । जानहु सकल आप पर भेद, जिहि जाने है कर्म निवेद ॥ ररा कहें राम सुनि बैन, रमि अपने गुण तजि पर सैन । रिद्धि सिद्धि प्रगटहि तत्काल, रतन तीनि लखि लेहु निहाल | लला कहें लखहु निज रूप, लोक अग्र सम ब्रह्म सरूप । लीन होहु वह परम अवधार, लोभ करन परतीति निवार ॥
दोहा नेना अक्षर जे लखें,तई अक्षर नेन। जे अक्षर देखे नहीं, तेई नेन अनेन ॥
सोरठा ववा बोलें वैन,सुनो सुनो रे निपुन नर। कहा करत हो सैन, ऐंसो नरभौ पाइकै॥
चौपाई तता कहे तत्त्व निज काज, ताके कहे होई शिवराज । ताको अनुभो कीजे हंस, ता वेदत है तिमिर विध्वंस ।। थथा कहे इंद्रिनि को भूप, थंभन मन कीजे चिद्रूप । थकहैं सकल करम के संग, थिरता सुख तहां होइ अभंग ।। ददा कहें परम गुणवान, दीनें थिरता लहो निधान । दया वहे सु दया जहि होइ, दया शिरोमणि कहिये सोई॥ धधा कहे धरम को ध्यान, धर चेतन अपनों गुण ज्ञान । धवल परम पद प्राप्ति होई, ध्रुव ज्यौं अटल टले नहीं सोई ॥ नाना नव तत्त्वनि सों भिन्न, नित प्रति रहें ज्ञान के चिन्ह । निशदिन ताके गुण अवधारि, निर्मल होइ कर्म अघ टारि ॥ पपा कहे परम पद इष्ट, परख गहो चेतन निज दिष्ट । प्रतिभासे सब लोकालोक, पूरन होइ सकल सुख थोक ।। फफा कहे जु फिरो कित हंस, फिरि फिरि मिले न नरभौ वंस । फंद सकल अरि चकचूर, फेरि सकति निज आनंद पूर ।। बबा कहें ब्रह्म सुनि वीर, वर विचित्र तुम परम गंभीर । बोध बीज लहिए अभिराम,विधि सों कीजे आतम काम ॥
दोहा शशा शिक्षा देत है, सुनि हो चेतन राम । सकल परिग्रह त्याग के, सारो आतम काम॥ षषा षोटी देह यह, पिनक मांहि घिर जाइ। षरी सु आतम संपदा, षिरें न थिर दरसाइ॥ ससा सजि अपने दलहि, सिव पथ करहु विचार। होहि सकल सुष सासुते, सत्यमेव निरधार ॥ हहा कहे हित साष यह, हंस बन्यो है दाव। हरि ले षिन में कर्म को, होइ बैठि सिवराव ॥ क्षक्षा क्षायक पंथ चढि, क्षय कीजे सब कर्म। क्षण इक में वसिये तहां, क्षेत्र सिद्ध सुष धर्म ॥ यह अक्षर बत्तीसिका, रची भगौती दास। बाल प्याल कीनों कछु, लहि आतम परकास॥
॥इति अक्षर बत्तीसिका। १६१
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