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१. अक्षर बत्तीसिका
रचयिता- भैया भगौतीदास जी
दोहा ऊँकार अपार गुण, पार न पावे कोई। सो सब अक्षर आदि धुवन में, ताहि सिद्धि होई॥
ध्वनि निरक्षरी ॐकारमयी खिरती है जो अगम अपार होती है। यह संपूर्ण जिनवाणी द्रव्य श्रुत रूप में बावन अक्षरोंमयी होती है। चारों वेद अर्थात् चार अनुयोग प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग यह सब दिव्य ध्वनि से प्रगट होते हैं।
ॐकारमयी दिव्यध्वनि से नि:सृत जिनवाणी की महिमा जगत प्रसिद्ध है। ॐकार का घट-घट में वास है।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी ॐकार के ध्यान में रत रहते हैं, ऐसे ॐकार को सदैव नमस्कार करो और निर्मल होकर परम उत्कृष्ट आत्मानुभूति के अतीन्द्रिय अमृत रस का पान करो, छंद इस प्रकार है
ॐकार सब अक्षर सारा, पंच परमेष्ठी तीर्थ अपारा। ॐकार ध्यावं त्रैलोका, ब्रह्मा विष्णु महेसुर लोका।
ॐकार ध्वनि अगम अपारा, बावन अक्षर गर्मित सारा । चारों वेद शक्ति है जाकी, ताकी महिमा जगत प्रकाशी॥
ॐकार घट घट परवेशा, ध्यावत ब्रह्मा विष्णु महेशा। नमस्कार ताको नित कीजे, निर्मल होय परम रस पीजे ॥
ॐकार व्यवहार से पंच परमेष्ठी का और निश्चय से निज शुद्धात्मा का वाचक मंत्र है। प्राचीनकाल में प्रचलित शिक्षा पद्धति ॐकार से महिमा मण्डित रही है।
यही कारण है कि पुराने विद्वान कवियों ने वर्णमाला का आध्यात्मिक स्वरूप तो स्पष्ट किया ही है परंतु उसके प्रारंभ में ॐकार अथवा ॐकार में गर्भित पंचपरमेष्ठी का आराधन अवश्य किया है।
जिस प्रकार सोलहवीं शताब्दी में हुए आचार्य श्री मद जिन तारण स्वामी ने 'ॐ नमः सिद्धम्' मंत्र की अनुभवपरक सिद्धि करते हुए अक्षरावली का आध्यात्मिक स्वरूप स्पष्ट किया है।
इसी परंपरा का निर्वाह बाद में हुए कवियों के द्वारा किया गया है, यह अतीत के इतिहास से प्रमाणित होता है।
इस संदर्भ में भैया भगौतीदास कृत बारहखड़ी, पं. दौलतराम जी कासलीवाल कृत अध्यात्म बारहखड़ी विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जो यहां क्रमशः अक्षरश: प्रस्तुत हैं
चौपाई कका कहें करण वश कीजै, कनक कामिनी दिष्टि न दीजे। करिके ध्यान निरंजन गहिये,केवल पद इहि विधि सों लहिये ॥ खखा कहें खबर सुन जीव, खबरदार हो रहे सदीव । खोटे फंद रचे अरिजाल, बिन इकु जिन भूलहु वहि ख्याल ॥ गगा कहे ज्ञान अरु ध्यान, गहिकें थिर (जे भगवान । गुण अनंत प्रगटति तत्काल, गरकें जाहि मिथ्यामति जाल । घघा कहें सुघर पहिचान, घने घोस भष्ट फिरत अपान । घर अपने आवो गुणवंत, घणे करम ज्यों रहे हैं अन्त । नना कहें नैननि सों लखिये, नै निहचै व्योहार परषिये । निज के गुण निज मंहि गहि लीजे,निरविकल्प आतम रस पीजे।। चचा कहें चरचि गुण गहिये,चिन्मूरति शिव सम उर लहिये । चंचल मन कीजे थिर आन, चेतन सीख सुगुरु की मान ।। छछा कहे छांडि जग जाल, छाहों काय जीव प्रतिपाल । छांडि अज्ञान भाव को संग, छकि अपने गुण लखि सर्वंग ॥ जजा कहे मिथ्यामति जीति, जैन धर्म की गह परतीति । जिन सों जीव जगे निज काज, जगति उलंधि होई शिवराज ॥ झझा कहे झूठ पर वीर, झूठे चेतन साहस धीर । झूठो है यह कर्म शरीर, झूलि रहे मृग तृष्ना नीर ॥ अञा कहें निरंजन नैन, निश्चै शुद्ध विराजे ऐंन । निज तजिके पर में नहिं जाइ, निरावरण वेदहु जिनराई । टटा कहे निजातम गहिये, टिक के थिर अनुभौ पद लहिये । टिकन न दीजे अरि के भाव, टुक-टुक सुख को यह उपाव ॥
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