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________________ व्याकरण के परिप्रेक्ष्य में ओम् नमः सिद्धम् और ओम् नम: सिद्धेभ्यः अनादि निधन णमोकार महामंत्र में णमो सिद्धाणं यह अर्द्धमागधी प्राकृत भाषा में है। इसमें सिद्धाणं' यह सिद्ध शब्द की षष्ठी विभक्ति है क्यों कि प्राकृत में चतुर्थी नहीं होती है। प्राकृत भाषा प्राकृतिक या नैसर्गिक होती है और संस्कृत भाषा संस्कारित या परिमार्जित होती है। उपरोक्त मंत्र का अनुवाद दो प्रकार से हुआ, प्रथम 'नमस्करोमि सिद्धम्' और द्वितीय नमः सिद्धेभ्य: कालांतर में करोमि' इस क्रिया का लोप हुआ क्योंकि वर्तमान काल में प्रथम पुरुष एक वचन का रूप स्वयं (अहं) के लिए प्रयुक्त होता है वहां क्रियावाचक शब्द की उतनी आवश्यकता नहीं रहती जितनी द्वितीय पुरुष या तृतीय पुरुष में अन्य काल की क्रिया में होती है। अत: 'नम: सिद्धेभ्यः' ऐसा संक्षिप्त रूप रह गया है। 'नमः सिद्धेभ्यः' में नम: अव्यय है और पाणिनीय सूत्र 'नमस्स्वस्ति स्वाहा । स्वधालवषङ्योगाश्च' २/३/१६ के अनुसार चतुर्थी हुई। अर्थ हुआ मैं सिद्धों को नमस्कार करता हूं। 'नम: सिद्धम्' का अर्थ हुआ मैं सिद्ध को नमस्कार करता हूं। अर्थात् सिद्ध शब्द का प्रयोग एक वचन में हुआ है। यद्यपि 'सिद्धम्' शब्द एक वचन जैसा लगता है और एक सिद्ध अनंत और 'अदिदाणागद वट्टमाण कालत्तय सिद्धाणं सव्व सिद्धाणं णिच्च कालं णमंसामि' ऐसा आर्ष वचन सिद्ध भक्ति में आता है। और बहुवचन का अर्थ ही सिद्ध शब्द ध्वनित करता है यहां 'सिद्ध' शब्द संग्रहनय की अपेक्षा रखता है जैसे कि आचार्य नेमिचंद्र सिद्धांत देव ने वृहद् द्रव्यसंग्रह में लिखा है 'जीवमजीवं दव्वं जिणवर वसहेण जेण णिद्दिढ' और ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जायेंगे। 'सिद्धम्' शब्द का प्रयोग मात्र जैनियों की ही धरोहर मानना उचित नहीं होगा। एक सुभाषित में कहा है 'भो राजन् ! सिद्धोऽहं त्वत्प्रसादतः । पश्याम्यहं जगत्सर्वं न मां पश्यति कश्चन् । एक याचक राजा के दरबार में जाकर कहता है, याचक राजा के दरबार में जाकर कहता है, महाराज! आपकी कृपा से मैं सिद्ध बन गया हूं किंतु मुझे कोई नहीं देखता अर्थात् मुझे कोई भिक्षा नहीं देता है। सम्राट अशोक ने गुजरात में गिरनार में सिकता और पालादूनी नदियों को रोककर सुदर्शन सेतु बनवाया, जो बाद में अति वृष्टि में बह गया पश्चात् उस प्रांत के महाक्षत्रप (गवर्नर) रुद्रदामन ने दुरुस्त करवाया,उस दुरुस्तीकरण का शिलालेख लिखवाया, जिसका आरंभ सिद्धम् शब्द से हुआ है। 'सिद्धम् तद्राजं सुदर्शनं कारितम्' आदि यह ईसा पूर्व ३०० के पूर्व की बात है। (Epigraphica India vol. Vill page 477) भगवान महावीर के समकालीन या कुछ वर्ष बाद बौद्ध धर्म की स्थापना हुई, जिसके संस्थापक गौतम बुद्ध कहलाए, उनका पूर्व नाम 'सिद्धार्थ' था। सिद्धार्थ का अर्थ है जिसने अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया है। भारतीय वैदिक संस्कृति में भी सिद्ध शब्द का अनेकों बार प्रयोग हुआ है। इसी श्रृंखला में श्रीमद् जिन तारण स्वामी ने कहा है सिद्ध सिद्धि सदर्थ, सिद्धं सुबंध निम्मलं विमलं । दर्सन मोहंध विमुक, सिद्ध सुद्ध समायरहि॥ (ज्ञान समुच्चय सार गाथा-७०९) अर्थ-सिद्ध पद की प्राप्ति ही (सदर्थ) प्रयोजनभूत है। यही सदर्थ अर्थात् रत्नत्रय मार्ग है। यह सिद्ध पर्याय शुद्ध है, निर्मल है, विमल है। दर्शन मोह से विमुक्त कराने वाली है अत: उस पर्याय को प्राप्त करने के लिए शुद्ध आचरण करो। सिद्धम् सिद्ध सरूवं, सिद्धम् सिद्धि सौष्य संपत्तं । नंदो परमानंदो, सिद्धो सुद्धो मुने अध्वा ।। ७०३ ॥ ऊपर में सिद्ध अवस्था प्राप्त करने की विधि ७०९ वीं गाथा में और १४ वें गुणस्थान का वर्णन ७०३ नं. की गाथा में किया है। उसी प्रकार 'ॐ नमः सिद्धम्' (खातिका विशेष सूत्र-१) ॐनमः सिद्धि मुक्ति प्रसाद ते, साह सह धुव अस्थान काल कोडि जा (खातिका विशेष सूत्र-८१) तथा श्री खातिका विशेष का आरंभ 'ओम् नमः सिद्धम् और ॐ नम: उवन सिद्ध नमो नमः (छद्मस्थ वाणी जी द्वितीय अधिकार सूत्र-१) और ॐ नम: सिद्धम् तृतीय अधिकार में, ॐ नमः सिद्धम् चतुर्थ अध्याय में आया है। ॐ नम: सिद्धम् में मेरे विचार से ओम् शब्द स्वस्ति वाचक है और 'नमः सिद्धम्' में ही वाक्य पूरा हो जाता है। यदि हम ओम् नमः इतना ही वाक्य ले लें तो भी वाक्य पूरा हो जाता है। स्पष्ट है कि ओम् में पंच परमेष्ठी गर्भित हैं, अत: ओम् नम: में ही सिद्धों को नमस्कार हो चुका है। उदाहरणार्थ- उवं नम: विन्दते जोगी। (पंडित पूजा जी गाथा-३) ओम् शब्द स्वस्ति वाचक है जो किसी भी धार्मिक ग्रंथ के पठन के आदि और अंत में उच्चारण किया जाता है। ओम् शब्द का अव्यय रूप में प्रयोग गंभीरता
SR No.009720
Book TitleOm Namo Siddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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