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से हामी (yes) भरने के लिए किया जाता है।
(आपटे का संस्कृत अंग्रेजी शब्द कोश पृ. ३१९) शब्द की तीन शक्तियां कही गयी हैं १. अभिधा २. लक्षणा और ३. व्यञ्जना । यहां अभिधा से अपने निजात्मा का बोध नहीं होता यह बात बिल्कुल स्पष्ट है। और न ही जहद्, अजहद् और जहदाजहद् लक्षणा से । व्यञ्जना से भी नहीं क्योंकि यहां ऐसा कोई व्यञ्जक शब्द उपस्थित नहीं है जो शुद्ध कार्य पर्याय को छोड़कर कारण शुद्ध पर्याय की व्यञ्जना करे ।
यहां अनुमान भी काम नहीं करता जो शुद्ध कारण पर्याय की ओर इंगित करे । अनुमान के लिए जाति प्रतिज्ञा और व्यक्ति प्रतिज्ञा की आवश्यकता होती है जिसे क्रमश: General enunciation और Particular enunciation कहते हैं। अत: इस कसौटी पर भी खरा नहीं उतरता। उदाहरणार्थ- प्रवचनसार की ८० नंबर की गाथा जो अरहंत को द्रव्य गुण पर्याय से जानता है वह अपने आत्मा को जानता है, तात्पर्य यह है कि अरहंत प्रत्यक्ष देखे जाते हैं, सुने जाते हैं (सिद्धों को नहीं) कि उनकी पर्याय शुद्ध क्यों और कैसे हुई। उत्तर में सिद्धान्त: कह सकते हैं कि वह शुद्धता आत्मा में विद्यमान है तब तो कर्म मल झड़ने पर पर्याय में शुद्धता आई है। अतः हम भी उस शुद्धता का अपने आत्मा में अनुमान करें और हम भी उसका साधन (रत्नत्रय) जुटायें। इसलिए यह गाथा हमारे कारण परमात्मा का अनुमान कराती है। अरहंत के द्रव्य गुण पर्याय General enunciation और मेरे आत्मा के द्रव्य गुण पर्याय Particular enunciation है। और वैसा मैं शुद्ध हूं यह अनुमान Inference है। ज्ञानी की ध्यान की प्रक्रिया में उपयोग एक समय अपने आत्मा की ओर, दूसरे समय में किसी परमेष्ठी की ओर जाता है और ऐसा बदलाव निरंतर चलता रहता है। ध्यान किस मंत्र के द्वारा हो रहा है यह बात गौण हो जाती है। वह ओम् हो या ओम् नमः या ओम् नमः सिद्धम् हो या ओम् नमः सिद्धेभ्यः हो या अन्य कोई भी मंत्र हो । क्यों कि 'अमंत्रमक्षरं नास्ति' यह उक्ति पदस्थ ध्यान को सार्थक करती है।
शब्द व्याकरण और एवंभूतनय की अपेक्षा ध्यान में रखते हुए उपरोक्त विचार मैंने रखे हैं। यह विचार मेरे अपने निजी हैं। इसमें किसी पक्ष व्यामोह का कोई स्पर्श नहीं है। इन विचारों के शब्दांकन से किसी का अनादर हो ऐसी भी भावना नहीं है । मैंने ॐ नमः सिद्धम् के संबंध में अपने स्वयं के चिंतन का शब्दांकन किया है।
रामटेक
दिनांक १४-१-२००३
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गेंदालाल जैन
तारण पंथ की साधना
भेदज्ञान - इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखण्ड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं ।
तत्व निर्णय - जिस जीव का जिस द्रव्य का जिस
समय जैसा जो कुछ होना है, वह अपनी तत्समय की योग्यता अनुसार हो रहा है और होगा, उसे कोई भी टाल फेर बदल सकता नहीं ।
वस्तुस्वरूप मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूं, यह एक-एक समय की चलने वाली पर्याय और जगत का त्रिकालवर्ती परिणमन क्रमबद्ध निश्चित अटल है, इससे मेरा कोई संबंध नहीं है।
द्रव्य दृष्टि
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द्रव्य को सत्स्वरूप से देखना ।
जो साधक इस साधना पथ पर चलता है वह तारण पंथी अर्थात् मोक्षमाणी है।
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