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है जो मोहरहित है किन्तु मोह सहित अल्पज्ञान कर्म बंध का ही कारण है। ११२
मोहरहित अल्पज्ञान भी सिद्धि मुक्ति का कारण है इस संदर्भ में शिवभूति मुनि का उदाहरण सर्वविदित है, वह इस प्रकार है -
तुसमास घोसंतो, भाव विसुद्धो महाणुभावो य। णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुड जाओ ॥
अर्थ-शिवभूति मुनि ने शास्त्र नहीं पढ़े थे, परन्तु तुषमाष ऐसे शब्द को रटते हुए भावों की विशुद्धता से महानुभाव होकर केवलज्ञान पाया यह प्रगट है। ११३
यहाँ यह समझना है कि कोई जाने कि शास्त्र पढने से ही सिद्धि है तो इस प्रकार भी नहीं है । शिवभूति मुनि ने तुषमाष ऐसा शब्दमात्र रटने से ही भावों की विशुद्धता से केवलज्ञान पाया। उनका प्रसंग इस प्रकार है-एक शिवभूति नामक मुनि था, उसने गुरु के पास शास्त्र पढ़े किन्तु धारणा नहीं हुई तब गुरु ने यह शब्द पढ़ाया कि 'मा रुष मा तुष' वह इस शब्द के बारे में विचार करने लगा। इसका अर्थ है 'रोष मत कर', 'तोष मत कर' अर्थात् राग-द्वेष मत कर। शिवभूति को यह पाठ भी याद नहीं रह सका। इसमें से भी सकार और तुकार भूल गए और 'तुषमाष' इस प्रकार याद रह गया । वह उसी के विचार में संलग्न हो गये । किसी दिन एक स्त्री को उड़द की दाल धोते देखकर किसी ने उससे पूछा-तू क्या कर रही है ? स्त्री ने कहा-तुष और माष भिन्न कर रही हूँ, यह सुनकर मुनि ने 'तुषमाष' शब्द का भावार्थ यह जाना कि यह शरीर तुष के समान है और आत्मा माष अर्थात् दाल के दाने के समान है, यह दोनों छिलके और दाल की तरह भिन्न-भिन्न हैं। इस प्रकार भाव जानकर आत्मा का अनुभव करने लगा। चिन्मात्र शुद्धात्मा को जानकर उसमें लीन हुआ और घातिया कर्मों को क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। इस प्रकार भावों की विशुद्धता से सिद्धि हुई, यह जानकर भाव शुद्ध करना, यह अभिप्राय है।
ऐसी स्थिति उस जीव की होती है जिसके पूर्व संस्कार प्रबल हों और नियति निकट हो । मुख्य रूप से जानना तो आत्मा को ही है यही सम्पूर्ण ज्ञान का सार ।
सिद्धांतों की भी आध्यात्मिक रूप में साधना और सिद्धि की थी। अक्षर, स्वर, व्यंजन, पद और अर्थ का जो आध्यात्मिक स्वरूप सद्गुरू तारण स्वामी ने स्पष्ट किया है वह अद्वितीय है और अन्यत्र दुर्लभ है। अक्षर के सम्बंध में वे लिखते हैं -
अन्यर अषय लवं, अपय पर्व अपय सबसभा । अषयं च ममल लव, ममल सहावेन निव्वुए जंति ॥
अर्थ- आत्मा का अक्षय स्वरूप ही अक्षर है। वही अक्षय पद, अक्षय शुद्ध स्वभाव है। अपना ममल स्वरूप ही त्रिकाल शाश्वत अक्षय स्वरूप है। इसी ममल स्वभाव के आश्रय से योगीजन निर्वाण को प्राप्त करते हैं। ११४
न्यानं अभ्यर सुरय, न्यानं संसार सरनि मुक्कष। अन्यान मिच्छ सहिय, न्यानं आवरन नरय वासम्मि ॥
अर्थ-ज्ञान स्वभाव जो अक्षर स्वरूप है, इसकी सुरत रखो, स्मरण ध्यान रखो यह ज्ञान ही संसार के भ्रमण से छुड़ाने वाला है; परन्तु यदि अज्ञान मिथ्यात्व सहित इस ज्ञान स्वभाव पर आवरण डालते हो तो नरक में वास करना पड़ेगा। ११५
जिसका कभी नाश नहीं होता वह अक्षर अपना ही ज्ञान स्वभाव है, श्री कमल बत्तीसी ग्रंथ में पंचम ज्ञान केवलज्ञान को अक्षर कहा है
जिनं च परम जिनयं, न्यानं पंचामि अधिरं जोयं । न्यानेन न्यान विध, ममल सुभावेन सिद्धि संपत्तं ॥
अर्थ-पंचम ज्ञान ही अक्षर स्वभाव है इसी को संजोओ, यही जिन और परम जिन स्वरूप है इसी को जीतो अर्थात् प्राप्त करो क्योंकि ज्ञान स्वभाव की साधना से ज्ञान से ज्ञान बढ़ता है, ममल स्वभाव में रहने से सिद्धि की संपत्ति प्राप्त होती है। ११६ षट्खंडागम में भी केवलज्ञान को अक्षर कहा गया है यथा
"क्षरणभावा अक्खर केवलणाणं" क्षरण अर्थात् विनाश का अभाव होने से केवलज्ञान अक्षर कहलाता है।१५०
योगानुशासन में लिखा है- अक्षर पुरुष वही है जो आत्मा के अमृत स्वरूप में प्रतिष्ठित हुआ हो । अक्षर वही है जो आत्म ब्रह्म से अनहदनाद की तरह गूंजे अर्थात् दिव्यवाणी बन सके क्योंकि तीर्थंकरों की वाणी को दिव्यवाणी ११४. श्री अध्यात्मवाणी, संपादित प्रति, उपदेश शुद्ध सार गाथा-३२६,पृ.-८३ ११५.वही, गाथा-३२७, पृ.-८३ ११६. कमलबत्तीसी गाथा-१२ पृ.-४ ११७. षट्खंडागम, खण्ड-१, जीवस्थान पृ.-११
श्री जिन तारण स्वामी आत्मज्ञानी वीतरागी साधु थे। उन्होंने आगम के ११२. आप्तमीमांसा समंतभद्राचार्य कृत,वीर सेवामंदिर ट्रस्ट दिल्ली प्रकाशन,
जून १९९७,१०/९७, पृष्ठ-१०१ ११३. अष्टपाहुड-भावपाहुड,गाथा-५३
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