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लेना संभव नहीं है इसलिये आचार्य तारण स्वामी ने कहा है कि अक्षर, स्वर, व्यंजन आदि के द्वारा अपने अजर-अमर स्वरूप का चिंतन-मनन अनुभव करो ।
अष्यर सुर विजन, पदार्थ सुद्ध न्यान निम्मलये । अप्पा परमप्पानं, नन्त चतुस्टय सरूव निम्मलये ॥
अर्थ - अक्षर, स्वर, व्यंजन, पद और उनका अर्थ एकमात्र शुद्ध ज्ञानमयी निर्मल आत्मा ही परमात्मा है। इस अनन्त चतुष्टयमयी निर्मल स्वरूप को जानना ही अक्षर, स्वर, व्यंजन आदि का सार है। १०१
इसकी प्राप्ति का मार्ग कैसे बने इसका उपाय श्री तारण स्वामी ने वैज्ञानिक विधि से स्पष्ट करते हुए शुद्ध उपभोग करने की प्रेरणा दी है।
आगम में चरणानुयोग के ग्रंथों में व्रतों के अंतर्गत भोगोपभोग परिमाण व्रत का उल्लेख आता है। शिक्षाव्रत के इस भेद को बताते हुए आचार्यों ने लिखा है कि जो वस्तु एक बार भोगने में आवे उसे भोग कहते हैं, जैसे- भोजन आदि । जो वस्तु बार-बार भोगने में आवे उसे उपभोग कहते हैं। जैसे- स्त्री, गहना, आदि । १०२
श्री जिन तारण स्वामी ने व्यवहारिक आचरण के इस सिद्धांत को बखूवी निश्चय में सिद्ध किया। उन्होंने उपभोग के दो भेद किये-अशुद्ध उपभोग और शुद्ध उपभोग। इनमें अशुद्ध उपभोग संसार का कारण है और शुद्ध उपभोग मुक्ति का कारण है। १०३
उपभोग के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि मन से विषय-कषाय और पापों का बार-बार विचार करना अशुद्ध उपभोग है । इस प्रकार मन से अशुद्ध उपभोग होता है। शुद्ध उपभोग के संबंध में आचार्य कहते हैं
सुद्धं उपभोगयं जेन, मति सुति न्यान चिंतनं । अवधि मन पर्जयं सुद्धं केवलं भाव संजुतं ॥
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अर्थ-मति श्रुतज्ञान से चिंतन-मनन पूर्वक जो जीव शुद्ध उपभोग करता
१०१. श्री अध्यात्मवाणी, ज्ञान समुच्चयसार, संपादित प्रति, गाथा - ९६ पृ. ६३ १०२. ज्ञानानंद श्रावकाचार, ब्र. रायमल्ल जी रायपुर, दि. जैन मुमुक्षु मंडल
भोपाल प्रकाशन, द्वि. सं- सन् २०००, पृ. ३४
१०३. श्री अध्यात्मवाणी, ज्ञान समुच्चयसार, आचार्य तारण स्वामी, गाथा १०१, पृष्ठ ३१
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है उसी को अवधि ज्ञान, मनः पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान प्रगट होता
है । १०४ यहां कहने का अभिप्राय यह है कि शुद्ध उपभोग बुद्धि से होता है। जिस प्रकार किसी वस्तु का बार-बार उपयोग करके जीव उपभोग करता है इसी प्रकार बुद्धि पूर्वक बार-बार हमें अपने स्वरूप का चिंतन मनन करना चाहिए। यही शुद्ध उपभोग ज्ञान उपभोग कहलाता है जो मुक्ति का कारण है। यह ज्ञान उपभोग किस प्रकार होता है, उसका उपाय बताते हुए सद्गुरु कहते हैं
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अप्यर स्वर विजन जेन, पद श्रुत चिंतनं सदा । अवकास न्यान मयं सुद्धं, उपभोगं न्यान उच्यते ॥
अर्थ- जिनवाणी के अक्षर, स्वर, व्यंजन, पद और वाक्यों का चिंतवन करना तथा समय निकाल कर आकाश के समान शुद्ध अपने ज्ञानमयी शुद्धात्मा का बारंबार चिंतवन करना इसी को ज्ञान का उपभोग कहा जाता है। १०५
आत्मज्ञान का व जिनवाणी का स्वाद लेना ही ज्ञान का उपभोग है, जो अपना हित करना चाहे उसको सदा ही जिनवाणी के अक्षर, शब्दों का पठन पाठन, चिंतन-मनन करना चाहिए। बुद्धिपूर्वक अपना निर्णय बार-बार करना चाहिए यही ज्ञान का उपभोग है। अन्यत्र भी यही कहा गया है
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धर्मामृतं सदा पेयं, दुःखातंक विनाशनम् । यस्मिन् पीते परं सौख्यं जीवानां जायते सदा ॥
अर्थ- आत्मार्थी जीवों को उचित है कि दुःख रूपी रोग का नाश करने के लिए धर्म रूपी अमृत का सदैव पान करते रहना चाहिए। जिसके पान करने से जीवों को परम सुख होता है। ध्यान द्वारा आत्मज्ञान का भोग करना सर्वोत्तम है यदि चित्त न लगे तो शास्त्र द्वारा आत्मा का विचार करते रहना चाहिए; क्योंकि इन्द्रिय विषयों का उपभोग अशुद्ध उपभोग है और ज्ञान का उपभोग शुद्ध उपभोग है ।
इसी चिंतन-मनन पूर्वक जो जीव मोक्षमार्ग में प्रवर्तता है, आचार्य कुन्दकुन्द देव ने उसको भव्य कहा है।
सुत्तम्मिजं सुदिट्ठ, आइरिय परंपूरेण मग्गेण । णाऊण दुविह सुत्तं वट्टदि सिवमग्ग जो भव्वो ।
अर्थ- सर्वज्ञ भाषित सूत्र में जो भले प्रकार कहा गया है, उसको आचार्य परंपरा रूप मार्ग से दो प्रकार के सूत्र को शब्दमय और अर्थमय जानकर मोक्षमार्ग १०४. वही, गाथा १०२
१०५. वही, गाथा १०३
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