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चोदनालक्षणोथों धर्मः। इह लोक और पर लोक की उन्नति जिसका प्रयोजन हो, जिसे प्रत्येक प्राणी चाहता है वह धर्म है। ९४
यतोऽभ्युदय नि: श्रेयस सिद्धिः स धर्मः। जिससे जीव संसार में सुखी रहे और मोक्ष की प्राप्ति करे वह धर्म है। १५
विद्यैव तु निर्धारणात् । उस परम ब्रह्म को जान लेने से ही मुक्ति मिलती है, ब्रह्म विद्या ही मुक्ति का कारण है। ९६
धम्मो दया विसुद्धो। जो दया से विशुद्ध है वही धर्म है। २७
आनन्दं सहजानन्दं,धम्म ससहाव मुक्ति गमनं च । आनन्द सहजानन्द मयी स्व स्वभाव में रहना ही धर्म है, इसी से मुक्ति की प्राप्ति होती है। २८
इसी प्रकार 'चारित्तं खल धम्मो, आचार: परमो धर्मः, अहिंसा परमो धर्मः, रयणत्तयं च धम्मो,जीवाणं रक्खणं धम्मो।
परहित सरिस धर्म नहिं भाई,पर पीड़ासम नहिं अधमाई। धर्मन दूसर सत्य समाना, आगम निगम पुराण बखाना॥ धारणात् धर्मः धार्यते असो धर्मः
आदि अनेक सूत्र संत वाणी में उपलब्ध हैं, जिनका एक ही अभिप्राय है कि धर्म मात्र चर्चा परक नहीं, प्रायोगिक है।
कोई व्यक्ति मात्र शब्दों को सीखकर उनकी चर्चा करता है और यद्वा-तद्वा प्रवृत्ति करता है तो यह कल्याणकारी नहीं है । कहा भी है
नाविरतो दुश्चरितानाशान्तो नासमाहितः।।
नाशान्त मानसो वापि प्रज्ञानेनैन माप्नुयात् ॥ अर्थात् जिस व्यक्ति ने अपनी बुरी आदतें नहीं छोड़ी, जो शांत चित्त एकाग्र नहीं
जिसका मन चारों ओर भटकता रहता है, वह मात्र ज्ञान से इस आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता । ९९
इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर भारत की गरिमा संपूर्ण विश्व में बनी. सारी दुनियां ने भारत को धर्म गुरु माना, जैसा कि कहा गया है
बाञ्छन्ति देवा अपि यत्र जन्म, यस्याजिरे ब्रह्मननत कृष्ण । यो वै गुरुः सर्वे महीतलस्य,तं भारत देशमहं नमामि ॥
आज भी पाश्चात्य संस्कृति के लोग पूरी श्रद्धा के साथ भारतीय संस्कृति के शुद्ध अध्यात्म को जानने के इच्छुक हैं।
आत्म ज्ञान से ही जीवन की शोभा है, बिना आत्म ज्ञान के कुछ भी कार्यकारी नहीं है, नीतिकार भी यही कहते हैं
पठंतु चतुरो वेदान, सर्व शास्त्र विशारदाः।
आत्मज्ञानं न जानंति, दींपाक रसं यथा ॥ चारों वेदों को पढ़ लो, सर्वशास्त्र पढ़कर शास्त्री और विशारद हो जाओ किन्तु आत्म ज्ञान को नहीं जानते तो समूचा ज्ञान (चटुवा) चम्मच की तरह स्वाद रहित होता है।
जैसे-चम्मच, सभी खाद्य पदार्थों में जाती है किन्तु उसे स्वाद किसी भी वस्तु का नहीं आता, इसी प्रकार अज्ञानी जीव सब कुछ जानते हुए भी ज्ञान का कुछ भी स्वाद नहीं ले पाता।
किसी अज्ञात विचारक ने इसी प्रकार का एक महत्वपूर्ण सूत्र लिखा है- १००
A spoon can not perceive the taste of soup but the tongue can perceive the taste of soup. similarly if a fool is associated with a wise man even all his life, he can not perceive the truth but an intelligent man can perceive the truth.
इस सूत्र में भी अज्ञात कवि विचारक यही कहना चाहता है कि जैसे चम्मच रस का स्वाद नहीं ले सकती किन्तु जिह्वा स्वाद ले सकती है। इसी प्रकार कोई अज्ञानी अपने जीवन भर भी किसी ज्ञानी के साथ रहे तो भी वह सत्य को नहीं पहिचान सकता है।
अभिप्राय यह है कि मात्र ऊपरी ज्ञान से आत्मा की अनुभूति का स्वाद
९४. मीमांसा दर्शन-१/१/२ ९५. वैदिक दर्शन १/१/२ ९६. ब्रह्मसूत्र, वेदांत दर्शन-३/२/११ ९७. अष्टपाहुड-बोधपाहुड,गाथा २५ ९८. श्री अध्यात्मवाणी उपदेश शुद्धसार, पृष्ठ ७०, संपादित प्रति २०४३
९९. कठोपनिषद्-१/२/२४ १००. मुनि कामकुमारनंदी जी से प्राप्त,सन् १९९८, देहरादून.
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