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इसी संदर्भ में आर्यिका ज्ञानमती जी ने लिखा है- "हे पुत्रियो ! तुम दोनों अब विद्या ग्रहण करने में प्रयत्न करो, क्योंकि तुम दोनों की यही विद्या ग्रहण करने की उम्र है। तीर्थंकर ऋषभदेव ऐसा कहकर बार-बार उन्हें आशीर्वाद देकर अपने चित्त में स्थित श्रुतदेवता को आदरपूर्वक सुवर्ण के विस्तृत पट्टे पर स्थापित करते हैं, पुन: 'सिद्धम् नमः' इस मंगलाचरण रूप मंत्र का उच्चारण कर पुत्रियों से उच्चारण कराकर अपने दाहिने हाथ से दाईं ओर बैठी हुई पुत्री (ब्राह्मी) को "अ, आ, इ,ई, उ,ऊ, ऋ, ऋ,लू,लू, ए, ऐ, ओ, औ, क,ख,ग, घ, ङ,च, छ, ज, झ,ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण,त, थ, द, ध, न, प,फ, ब,भ, म, य ,र, ल, व, श, ष, स, ह, अनुस्वार अं, विसर्ग अ: जिव्हामूलीय और उपध्मानीय इन चार । अक्षरावली को लिखाते हैं और बाएं हाथ से अपने बाईं ओर बैठी हुई पुत्री (सुन्दरी) को इकाई,दहाई, आदि स्थानों के क्रम से १,२,३ आदि संख्या रूप गणित लिखाते हैं। वे दोनों कन्याएं पूज्य पिता ऋषभदेव के मुख से इन सिद्ध मातृका रूप अक्षर लिपि और गणित को अच्छी तरह से समझकर हृदय में धारण कर लेती हैं। उस समय स्वयंभू ऋषभदेव का बनाया हुआ एक बड़ा भारी व्याकरण शास्त्र प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ था। उसमें सौ से भी अधिक अध्याय थे और वह समुद्र के समान अत्यंत गंभीर था। ४३
इसी प्रकार का उल्लेख उन्होंने जैन भारती ग्रंथ में भी करते हुए लिखा है कि व्याकरणशास्त्र,छंदशास्त्र और अलंकार शास्त्र इन तीनों के समूह को वाङ्गमय कहते हैं। भगवान के द्वारा बनाया गया व्याकरण शास्त्र बहुत विस्तृत था जिसमें सौ से अधिक अध्याय थे। ४४
इसी व्याकरण के संबंध में 'बृहज्जैन शब्दार्णव' के मुख्य संपादक द्वारा लिखित अंशदृष्टव्य है-'श्री ऋषभदेव स्वयंभू भगवान ने जिस स्वायम्भुव व्याकरण की सर्वप्रथम रचना की उसके आदि में 'ॐ नमः सिद्धम्' लिखकर अक्षरावली का प्रारंभ किया था। यही अक्षरावली श्रुतज्ञान या शास्त्र सिद्ध करने का मूल मंत्र है। इसे 'सिद्ध मातृका' भी कहते हैं। ४५
स्पष्ट है कि अक्षरावली अथवा वर्ण समाम्नाय 'ॐ नम: सिद्धम्' कहकर ४३. पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव स्मारिका १९९८,दि.जैन मंदिर पाकेट-१,
मयूर विहार फेज-१,दिल्ली से प्रकाशित, पृ.२०-२१ ४४. जैन भारती, दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर से प्रकाशित, पृ.६१,
वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला का ४८ वां पुष्प, सन् १९८२ ४५. वृहज्जैन शब्दार्णव, प्रथम भाग, वी एल जैन चैतन्य, देशबंधु प्रेस बाराबंकी में मुद्रित पृ.३८, स्वल्पार्थ ज्ञान रत्नमाला का द्वितीय पुष्प
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प्रारंभ किया जाता था। ग्रंथों में एक स्वयंभू नाम के महाकवि का भी उल्लेख प्राप्त होता है। जो संस्कृत व्याकरण के तलस्पर्शी ज्ञाता थे। पं. श्री नाथूराम प्रेमी के अनुसार उनका समय वि. सं.७३४ से ८४० के बीच माना जाना चाहिए।४६
इन कवि स्वयंभू ने जिस वर्ण समाम्नाय को अपने उपमानों में कहा है उसका प्रारंभ भी 'ॐ नम: सिद्धम्' से ही हुआ था। इससे सिद्ध होता है कि भगवान स्वयंभू ऋषभदेव का व्याकरण उस समय विद्यमान रहा होगा जिससे महाकवि स्वयंभू ने व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया होगा, यह संभव है, क्योंकि उस समय श्रुत की ऐसी परंपरा थी। जैन व्याकरण साहित्य में दो ग्रंथ अत्यधिक प्राचीन हैं और प्रसिद्ध भी हैं- जैनेन्द्र व्याकरण और शाकटायन व्याकरण । जैनेन्द्र व्याकरण के रचयिता आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद थे। यह ऐन्द्र परंपरा का प्रसिद्ध ग्रंथ माना जाता है। पं. नाथूराम प्रेमी ने "जैन साहित्य और इतिहास'' में लिखा है कि आचार्य समन्तभद्र और देवनन्दि पूज्यपाद छटवीं शताब्दी में हुए थे और समकालीन थे। ४७
यद्यपि इस ग्रंथ का प्रारंभ तीर्थंकर महावीर के नाम स्मरण से हुआ है, किंतु इसमें भी अक्षराम्भ 'ॐ नम: सिद्धम्' से करने की बात स्वीकार की गई है। 'सिद्धं वर्ण समाम्नाय:' भी इसका सूत्र है।
शाकटायन के संबंध में इस प्रकार उल्लेख मिलता है कि वि.सं. ७३६-७९ में पाल्यकीर्ति नामक जैन श्रमण हुए थे, उन्होंने शाकटायन ग्रंथ की रचना की थी, वह ग्रंथ शाकटायन व्याकरण ग्रंथ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। पाल्यकीर्ति के प्राप्त ग्रंथ में एक स्थान पर यह उल्लेख किया गया है"परिपूर्णमल्पा लघुपाय शम्दानुशासन शास्त्रमिदं महाश्रमण संघाधिपतिभंगवानाचार्यः शाकटायनः प्रारभते "५८
श्री मधुकर ने इस संबंध में लिखा है- "ओनामासीधं शब्द संस्कृत भाषा के प्राचीनतम वैयाकरण महर्षि शाकटायन के व्याकरण का प्रथम सूत्र- 'ओऽम नम: सिद्धम्' है। पुराने जमाने में बालक को विद्यारंभ कराते समय सबसे पहले इसी सूत्र की शिक्षा दी जाती थी। ४९ ४६. जैन साहित्य और इतिहास, पं. नाथूराम प्रेमी, बंबई द्वि. सं.,अक्टूबर १९५६,
पृ.२११ ४७. वही, पृ.४६ ४८. पाल्यकीर्ति रचित स्वोपज्ञ अमोघ वृत्ति, शाकटायन व्याकरण, स्व. डा. के. बी.
पाठक संपादित, १३ वीं वृत्ति। ४९. ओनामासीधम : बाप पढ़े न हम-कादम्बिनी, दिसंबर-१९८३, पृ.१०९