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लक्ष्य से राग और अभेद के लक्ष्य से वीतराग होता है।
सम्यक्दृष्टि ज्ञानी जीव अपने आत्मा को, आत्मा से आत्मा के लिए, आत्मा को, आत्मा में स्थापित कर अपना ही अनुभव करता है, यह अभेद अनुभूति ॐनमः सिद्धम् है।यह मंत्र उच्चारण करते समय भेव रूप विकल्प रूप अनुभव में आता है परन्तु जब परमात्मा और स्वभाव के चिंतन रूप विकल्पों का अभाव होकर मात्र चैतन्य सत्ता शेष रहती है, संवेदन मात्र स्वसंवेदन रूप रह जाता है यह स्वभाव की निर्विकल्प अनुभूति ही ॐ नमः सिद्धम् है। ___मंत्र तो एक शक्ति होती है, जिसमें बहत विशेषता होती है.और स्वानुभूति से बड़ी दुनियाँ में दूसरी कोई शक्ति नहीं होती, यह ऐसी महान आत्म शक्ति है जिसके प्रगट होने पर संसार के दु:ख क्षय हो जाते हैं, परम सुख की प्राप्ति हो जाती है। रिद्धियां-सिद्धियां तो ऐसे अनुभवी ज्ञानी योगियों के चरणों में लोटती हैं, फिर भी उन्हें इनकी ओर का कोई लक्ष्य नहीं रहता, क्योंकि उनका लक्ष्य तो मुक्त होने का है। ॐ नम: सिद्धम् में वह परम शक्ति छिपी हुई है जो अनुभव स्वरूप है, जिसके प्रगट होने पर सिद्धि मुक्ति का मार्ग स्वयमेव बन जाता है।
सिद्ध परमात्मा औदारिक आदि पांच शरीरों से रहित होने से 'अशरीरी' हैं। निश्चय से नर-नारकादि पर्यायों के ग्रहण त्याग के अभाव होने से अविनाशी हैं, इन्द्रिय प्रपंच से अत्यंत दूर, अपने परिपूर्ण स्वभाव में स्थित होने से अतीन्द्रिय हैं, रागादि मल अर्थात् द्रव्य कर्म, भाव कर्म,नो कर्म रूप मल से रहित होने से निर्मल और विशुद्धात्मा हैं, उनके समान ही निश्चय नय की दृष्टि से समस्त संसारी जीव भी अशरीरी, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्ध हैं।
अपना शुद्धात्मा भगवान पूर्ण चैतन्य घन, आनंद घन, निराकुल शांति का रस कंद जो त्रिकाल ध्रुव है वही मैं हूं, अनादि अनंत ध्रुव चैतन्य रूप विद्यमान तत्त्व को शुद्धात्मा भगवान कहते हैं, इसी की दृष्टि करना धर्म है, यहीं से धर्म की शुरुआत होती है। जो जीव भेदविज्ञान पूर्वक अपने सत्स्वरूप को जानते अनुभव करते हैं, वे ही अपने स्वरुप की आराधना में रत रहते हैं। ॐ नम: सिद्धम् मंत्र के । द्वारा भी जब तक वे सिद्ध प्रभु का आराधन कर अपने आत्म स्वरूप का चिंतन-मनन करते हैं, तब तक उनकी यह स्वभाव की भेद भक्ति कहलाती है, इसमें भी ज्ञानी अपने स्वरूप का ही चिंतन-मनन का आश्रय रखते हैं, पर का लक्ष्य नहीं करते क्योंकि अमृत मय स्वरूप का अनुभव एक बार हो जाने पर फिर उसी की ललक, भावना प्रबल हो जाती है। यही आत्मानुभूति की महिमा है। इस भेद की स्थिति में भी ज्ञानी अपने अभेद स्वरूप का चिंतन करते हैं। जैसा कि कहा है
केवलणाण सहावो,केवल देसण सहाव सह मइओ। केवल सत्ति सहावो,सोई इदि चिंतए णाणी॥ णियभावं णविमुच्चा, परभाव व गेहए केह। जाणदि पस्सदि सवं,सोहंदि चिंतए णाणी॥
॥नियमसार-९६,९७॥ केवलज्ञान स्वभावी, केवलदर्शन स्वभावी, सुखमय और केवल शक्ति स्वभावी वह मैं हूं ऐसा ज्ञानी चिंतन करते हैं।
जो निज भाव को नहीं छोड़ता, किंचित् भी परभाव को ग्रहण नहीं करता, सर्व को जानता देखता है, वह मैं हूं ऐसा ज्ञानी चिंतवन करते हैं।
ज्ञानी के ज्ञान में वस्तु स्वरूप का यथार्थ निर्णय है, अभेद अनुभूति के समय में तो अंतर में कोई विकल्प रहता ही नहीं है, क्योंकि ध्रुव स्वभाव विकल्प रहित है, वह विकल्पों से पकड़ में नहीं आता इसलिये अनुभव के काल में द्रव्य, गुण, पर्याय संबंधी विकल्प भी नहीं होते किन्तु ज्ञानी जब भेद रूप दशा में होता है तब भी लक्ष्य अपने स्वभाव का ही वर्तता है, क्योंकि वह जानता है कि भेद के
ॐ नमः सिद्धम् (शिक्षा, व्याकरण और इतिहास के क्षेत्र में) श्री गुरु तारण स्वामी का जन्म विक्रम संवत् १५०५ में हुआ था, अपने ६६ वर्ष ५ माह १५ दिवसीय जीवन काल में उन्होंने अपने आपको त्याग वैराग्य ज्ञान ध्यान संयम तप मय बनाया तथा चौदह ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों में सार मत के अंतर्गत श्री ज्ञान समुच्चय सार ९०८ गाथाओं में निबद्ध किया है। इसी ग्रंथ में आगम में वर्णित मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थानों का वर्णन किया है।'
गुणस्थानों का स्वरूप वर्णन करने के पश्चात् गुणस्थानातीत सिद्ध परमात्मा को ऊर्ध्वगामी ऊंकार मयी आत्मा विंद स्थान में लीन परमात्मा कहा
उन ऊंकार मयी सिद्ध परमात्मा के समान ही अपने ऊंकार मयी सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा का स्मरण ध्यान करते हुए कहा है कि सिद्ध प्रभु के समान ही मैं आत्मा स्वभाव से परिपूर्ण रत्नत्रयमयी आत्मा शुद्ध निर्मल परमात्मा हूं, सिद्ध १. ज्ञान समुच्चय सार, गाथा ६५८ से ७०४ २. वही, गाथा ७०५
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