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यही परम तत्त्व परमात्मा अपना स्वभाव है। आचार्य कुन्दकुन्द देव इसी कारण श्री मद् जिन तारण स्वामी ज्ञान समुच्चय सार ग्रंथ में कहते हैंपरम तत्त्व के स्वरूप का कथन करते हुए कहते हैं
अप्पा परमप्प तुल्यं च, परमानंद नंदितं । जाइजर मरण रहियं, परमं कम्मट्ठ वशिय सुद्ध।
परमप्या परमं सुख, ममलं निर्मल धुर्व ॥७९॥ णाणाइबउ सहावं, अक्खयमविणासमच्छेयं ॥
आत्मा, परमात्मा के समान परम आनंद से आनंदित परम शुद्ध परमात्मा अव्वाबाहमणिवियमणोवम पुण्ण पाव णिम्मुक्क।
है। यह आत्मा, परमात्म स्वरूप ममल निर्मल और ध्रुव स्वभावी है। पुणरागमणविरहियं णिच्वं अचलं अणालय ॥
चित् शक्ति से रहित अन्य सकल भावों को मूल से छोड़कर और चितशक्ति ॥नियमसार-१७७,१७८॥
मात्र ऐसे निज आत्मा का अति स्फुट रूप से अवगाहन करके, आत्मा समस्त परम आत्म तत्त्व, जन्म जरा मरण रहित-परम, आठ कर्म रहित-शुद्ध, विश्व के ऊपर प्रवर्तमान ऐसे इस केवल (एक) अविनाशी आत्मा को आत्मा में ज्ञानादिक चार स्वभाव वाला, अक्षय,अविनाशी और अच्छेद्य है।
साक्षात् अनुभव करो। जिस सिद्ध स्वभाव का संपूर्ण आश्रय लेने से सिद्ध हुआ जाता है, ऐसे जैसा कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं, आचार्य की आज्ञा को अनुभव प्रमाण स्वीकार कारण परम तत्त्व की महिमा अपूर्व है। यह तत्त्व स्वभाव से संसार का अभाव होने करो। के कारण जन्म जरा मरण रहित है, परम पारिणामिक भाव द्वारा परम स्वभाव
जारिसिया सिद्धप्पा, भवमल्लिय जीव तारिसा होति। वाला होने के कारण परम है, तीनों काल निरुपाधि स्वरूप वाला होने के कारण
जर मरण जम्म मुक्का, अडगुणालंकिया जेण ॥ आठ कर्म रहित है, द्रव्य कर्म और भाव कर्म रहित होने के कारण शुद्ध है। सहज
असरीरा अविणासा, अणिंदिया णिम्मला विसुद्धप्पा । ज्ञान,सहज दर्शन, सहज चारित्र और सहज चित् शक्तिमय होने के कारण
जह लोयग्गे सिद्धा, तह जीवा संसिदी णेया॥ ज्ञानादिक चार स्वभाव वाला है, सादि सांत, मूर्त इन्द्रियात्मक विजातीय विभाव
॥नियमसार-४७,४८॥ व्यंजन पर्याय रहित होने के कारण अक्षय है, प्रशस्त अप्रशस्त-गति के हेतुभूत जैसे सिद्ध आत्मा हैं वैसे भवलीन (संसारी) जीव हैं, जिससे (वे पुण्य-पाप कर्म रूप द्वन्द का अभाव होने कारण अविनाशी है, वध, बन्ध और संसारी जीव सिद्धात्माओं की भांति) जन्म जरा मरण से रहित और आठ गुणों से छेदन के योग्य मूर्तिकपने से रहित होने के कारण अच्छेद्य है।
अलंकृत हैं। जिस प्रकार लोकाग्र में सिद्ध भगवन्त अशरीरी, अविनाशी, यह कारण परम तत्त्व अव्याबाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्य-पाप रहित, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्धात्मा हैं, उसी प्रकार संसार में सर्व जीव हैं। पुनरागमन रहित, नित्य अचल और निरालम्ब है।
शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के अभिप्राय से संसारी जीवों में और मुक्त जीवों में समस्त दुष्ट अघ (पुण्य-पाप) रूपी वीर शत्रुओं की सेना के उपद्रव को कोई अंतर नहीं है। जो कोई अति आसन्न भव्य जीव हुए, वे पहले संसारावस्था अगोचर ऐसे सहज ज्ञान रूपी गढ़ में आवास होने के कारण अव्याबाध (निर्विघ्न) में संसार क्लेश से थके चित्त वाले होते हुए सहज वैराग्य परायण होने से द्रव्य है, सर्व आत्म प्रदेश में भरे हुए चिदानंदमयपने के कारण अतीन्द्रिय है, तीन भाव लिंग को धारण करके परम गुरु के प्रसाद से प्राप्त किए हुए परमागम के तत्त्वों (बहिरात्म तत्त्व, अंतरात्म तत्त्व और परमात्म तत्त्व) इन तीनों तत्त्वों में । अभ्यास द्वारा सिद्ध दशा को प्राप्त करके बाधा रहित (अव्याबाध) सकल विमल विशिष्ट, मुख्य प्रकार का, उत्तम होने के कारण अनुपम है, संसार रूपी संयोग से (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख, केवलवीर्य युक्त सिद्धात्मा उत्पन्न होने वाले सुख-दु:ख का अभाव होने के कारण पुण्य-पाप रहित है, हो गए जो कि सिद्धात्मा कार्य समयसार रूप हैं, कार्य शुद्ध हैं। जैसे वे सिद्धात्मा पुनरागमन (संसार में आवागमन) के हेतुभूत प्रशस्त-अप्रशस्त मोह, राग-द्वेष हैं, वैसे ही शुद्ध निश्चय नय से भव वाले संसारी जीव हैं। जिस कारण वे संसारी का अभाव होने के कारण पुनरागमन रहित है, नित्य मरण के तथा उस भव । जीव सिद्धात्मा के समान हैं, उस कारण वे संसारी जीव जन्म जरा मरण से रहित संबंधी मरण के कारणभूत कलेवर (शरीर) के संबंध का अभाव होने के कारण और सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सहित हैं। नित्य है, निज गुणों और पर्यायों से च्युत न होने के कारण अचल है, पर द्रव्य के यहां ॐ नम: सिद्धम् में निहित जो स्वानुभव मय सार तत्त्व है ऐसे कार्य अवलंबन का अभाव होने के कारण निरालंब है।
समयसार और कारण समयसार में अन्तर न होने की बात कही जा रही है। जैसे
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