________________ ज्ञायक रह आतम सुख पाओ ॐ नमः सिद्धम् ध्यान लगाओ, शान में देखो सिद्ध स्वभाव / शुद्धातम से प्रीति लगाओ, शायक रह आतम सुख पाओ॥ चेतावनी उमरिया पल पल बीती जाये, भज लो ॐ नमः सिद्धम्॥ मैं आतम ह सिद्ध स्वरूपी, सब कर्मों से न्यारा / भाव क्रिया पर्याय भिन्न है, ज्ञान स्वभाव हमारा ...उमरिया... कब से पर में भटक रहे हो, जन्म मरण दु:ख भोग रहे हो। बिन केवट की नैया चढके, भव सागर में डूब रहे हो // आतम से अपनी नेहा लगाओ, ज्ञायक रह आतम सुख पाओ॥ ॐ नम: सिद्धम् ॐ नम: सिद्धम् ॐ नम: सिद्धम् ॐ नम: सिद्धम्... जड़ चेतन दोनों है न्यारे, यह निश्चय से जाना। सब स्वतंत्र हैं निज सत्ता में, जिनवाणी में बखाना...उमरिया... मैं हूँ चेतन सिद्ध स्वरूपी, भेदज्ञान की भावना भाओ। जड शरीर पुद्गल है न्यारा, मिथ्या श्रद्धा दूर भगाओ / / शुद्धातम की शक्ति जगाओ, ज्ञायक बन आतम सुख पाओ // ॐ नम: सिद्धम् ॐ नम: सिद्धम् ॐ नम: सिद्धम् ॐ नम: सिद्धम्... बड़े भाग्य मानुष तन पाया,धर्म साधना कर लो। रत्नत्रय को धारण करके, मुक्ति श्री को वर लो ...उमरिया... आयु का नहीं कोई भरोसा, कौन समय क्या होवे। मोहनींद से जाग रे चेतन, मूर्छा में क्यों सोवे ...उमरिया... क्रिया भाव पर्याय से न्यारा, आतम अनंत चतुष्टय वाला / केवलज्ञान की सत्ता शक्ति, तीन लोक का जाननहारा // आतम गुण को अब प्रगटाव, ज्ञायक बन आतम सुख पाओ। ॐ नम: सिद्धम् ॐ नम: सिद्धम् ॐ नम: सिद्धम् ॐ नम: सिद्धम्... दृढता धर पुरुषार्थ जगाओ, अपना सुमिरण कर लो। दुर्लभ सब शुभ योग मिले हैं, संयम तप को धर लो ...उमरिया... ब्रह्मानन्द में लीन रहो नित, कर्म कषाय गलाओ। साक्षी ज्ञायक रहो निरन्तर, ध्यान समाधि लगाओ...उमरिया... वीरा राग द्वेष को छोड़ो, शुद्धातम से प्रीति जोड़ो। पर भावों मे भटक रहे क्यों, मोह राग में अटक रहे क्यों॥ पर से प्रीति भाव हटाओ, ज्ञायक बन आतम सुख पाओ // ॐ नमः सिद्धम् ॐ नमः सिद्धम् ॐ नम: सिद्धम् ॐ नम: सिद्धम्... चिन्तन शान्ति का स्थाई स्थान निर्मोही आत्मा है। मायावी कुटिल होता है और भद्र सरल होता है। त्यागी होकर जो संचय करते हैं वे महान पापी हैं। दान के बिना गृहस्थ का घर श्मशान तुल्य बतलाया है। गुणों में आचरण करना ही धर्म है दया जैसा कोई धर्म नहीं, हिंसा के समान कोई पाप नहीं. ब्रह्मचर्य के समान कोई व्रत नहीं, ध्यान के समान कोई साधन नहीं, शांति के समान कोई सुख नहीं, ऋण के समान कोई दु:ख नहीं, ज्ञान के समान कोई पवित्र नहीं, शुद्धात्म स्वरूप के समान कोई इष्ट नहीं, पापी के समान कोई दुष्ट नहीं, क्रोध के समान कोई शत्रु नहीं और क्षमा के समान दूसरा कोई मित्र नहीं, इसलिये सद्गुणों को धारण कर आत्म हित करना चाहिये। सम्यक्दर्शन पूर्वक उत्तम क्षमा धर्म प्रगट होता है। 178 179