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गुण पाठ पूजा का अर्थबारह पुंज अर्थात् ५ परमेष्ठी, ३ रत्नत्रय, ४ अनुयोग तथा सिद्ध के ८ गुण, सोलह कारण भावना, धर्म के १० लक्षण, सम्यग्दर्शन के ८ अंग, सम्यग्ज्ञान के ८ अंग, १३ प्रकार का चारित्र॥ १॥
जो जीव इन पचहत्तर शुद्ध गुणों के द्वारा ज्ञान लक्ष्मी से शुद्ध, जानने वाले ज्ञायक स्वभाव का वेदन करते हैं, मुक्ति स्वभाव में दृढ़ होते हैं, वे जीव इन गुणों की आराधना कर सिद्धि की सम्पत्ति प्राप्त करते हैं॥२॥
अरिहंत परमेष्ठी के ४६ गुण, सिद्ध के ८ गुण, आचार्य के ३६ गुण, उपाध्याय के २५ गुण और साधु के २८ मूलगुण होते हैं॥३॥
श्रेष्ठ ३४ अतिशय (जन्म के - १०, केवलज्ञान के -१०, देवकृत - १४) ८ महा प्रातिहार्य से संयुक्त, अनन्त चतुष्टय सहित, इस प्रकार केवलज्ञानी अरिहंत भगवान के ४६ गुण होते हैं॥४॥
सिद्ध परमेष्ठी को मोहनीय कर्म के क्षय से सम्यक्त्व प्रगटता है, केवलज्ञान की प्रगटता से अज्ञान (ज्ञानावरण कर्म) का नाश होता है। केवलदर्शन - दर्शनावरण कर्म के अभाव से और अनन्त वीर्य अन्तराय कर्म के अभाव से प्रगटता है॥५॥
सूक्ष्मत्व गुण नाम कर्म के अभाव से प्रगट होता है, आयु कर्म के अभाव से अवगाहनत्व, गोत्र कर्म के अभाव से अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व गुण वेदनीय कर्म के अभाव से प्रगट होता है ऐसा जानो। इस प्रकार सिद्ध परमेष्ठी के आठ गुण, आठ कर्मों के अभाव होने पर प्रगट होते हैं॥६॥
अहो ! आचार्य परमेष्ठी संवेगादि आठ गुण, उत्तमक्षमा आदि दश लक्षण धर्म, अनशन आदि बारह तप, अस्तित्व आदि छह आवश्यक का पालन करते हुए अपने आत्म स्वरूप में दृढ़ होते हैं। इस प्रकार आचार्य परमेष्ठी के ३६ गुण होते हैं॥७॥
भेद को विशेष कहते हैं और ग्यारह अंग सहित जो चौदह पूर्व को निर्विशेष अर्थात् भेद रहित सांगोपांग पूर्ण रूपेण जानते हैं, इस प्रकार जो ज्ञानी साधु ज्ञान के पच्चीस गुणों से युक्त होते हैं, उनको उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं। (उपाध्याय परमेष्ठी ११ अंग, १४ पूर्व के ज्ञाता होते हैं)॥ ८॥
सम्यग्दर्शन के १० भेद, सम्यग्ज्ञान के ५ भेद और १३ प्रकार का चारित्र यह साधु के २८ मूलगुण होते हैं। (पं. भूधरदास जी ने भी चर्चा समाधान में साधु के इन्हीं २८ मूलगुणों की चर्चा की है।)