SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८३ पुर पट्टन तज चले हैं निरास, ग्रन्थ छोड़ निग्रंथ उदास । छांडै राज पाट परिवार, छांडै मंदिर ज्योति अपार || सकल वस्तु मेरी कछु नाहीं, भये वैराग्य कैलासहिं जाहीं। वर्ष सहस्र घोर तप कीना, केवल लक्ष्मी को वर लीना ॥ तब, तप कल्याणक के निमित्त इन्द्र आयकर भगवान को विमला नामक पालकी में बैठाय उत्सव सहित आकाश मार्ग से सिद्धार्थ वन में ले गये। तहाँ चन्द्रकांत मणि की शिला ऊपर इन्द्राणी ने केसर को सांथिया रच्यो, तिस ऊपर भगवान विराजमान होय पंच चेल, चौबीस प्रकार के परिग्रह को त्याग कर पंच मुष्टि केशलौंच कर दिगम्बरी दीक्षा धार अठ्ठाईस मूलगुण तथा चौरासी लाख उत्तर गुण पालते भये। कर्म निर्जरा के हेतु घोर तपश्चरण के द्वारा चार घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। जयन् जय बोलिये जय नमोऽस्तु । श्री आदिनाथ भगवान की-जय। तब, केवल कल्याणक के निमित्त इन्द्रों ने आयकर अड़तालीस कोस के गिरदाकार में समवशरण की रचना करी। साढ़े बारह करोड़ वाद्य बाजते भये। ऐसे महोत्सव पूर्ण समवशरण में भगवान अपनी दिव्यध्वनि द्वारा भव्य जीवों को धर्मोपदेश देते भये। भगवान के उपदेश से समवशरण के मध्य बारह कोठों में बैठे हुए असंख्य देव, मनुष्य तथा पशुओं तक ने अपने कल्याण का मार्ग ग्रहण किया। तब हर्षित आनंदित होते हुए इन्द्रों ने इन्द्रध्वज पूजा और चतुर्विध संघ ने देवांगली पूजा पढ़कर जय जयकार किया। देवांगलीय पूजा ॐ जय जय जय, नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु । णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ चत्तारि मंगलं-अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, के वलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं ॥ चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो । चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरिहंते सरणं पव्वज्जामि,सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, के वलि पण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि ॥ अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दु:स्थितोऽपि वा। ध्यायेत्पञ्च नमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १ ॥ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यः स्मरेत् परमात्मानं स बाह्याभ्यन्तरे शुचिः ॥ २ ॥ अपराजित मंत्रोऽयं सर्व विघ्न विनाशनः । मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः ॥ ३ ॥ एसो पंच णमोयारो सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं होई मंगलम् ॥ ४ ॥
SR No.009719
Book TitleMandir Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages147
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy