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: श्लोक :
देव देवं नमस्कृतं लोकालोक प्रकासकं । त्रिलोकं भुवनार्थं जोति, उवंकारं च विन्दते ॥ अज्ञान तिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ श्री परम गुरवे नमः, परम्पराचार्येभ्यो नमः ॥ ॥ विनती फूलना ॥
भने विरमु तारन तरन जिन उवने विनती एक सुनीजै । तुम्ह अन्मोय भव्य जिय उवने, तिन्ह उवएसु कहीजै ॥ हां जू तरन जिन विनती एक सुनीजै ॥ १ ॥ नन्द अनन्दह चिदानन्द जिनु कम्मु उवंनु विलीजै । हां जू तारन जिन विनती एक सुनीजै || ॥ आचरी ॥ २ ॥
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चौ गै भमत दुष भौ भारी, सुष न कहईं पायौ । ऐसे काल तारन जिन उतने मुक्ति पंथु दरसायी ॥ ॥ हां जू ॥३॥ कालु पंचमी चपल अनिस्ट है, इस्टि दिस्टि नहु उपजै । न्यान बलेन इस्ट संजोए, भय षिपनिकु कम्मु विलीजै ॥ ॥ हां जू ॥ ४ ॥
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संसय सरनि नंत भौ भारी, भयहं दिस्टि भौ भय विनासु तं भव्य उवंनऊ कम्मु उवन्नु
भमीजे । विलीजै ॥
वजू नराच संहरन जं सहिउ, भउ विनासु तं सरीर औदारिक सहियो, भय षिपिय तरन
॥ हां जू ॥ ५ ॥
उत्तं ।
संपत्तं ॥
दव्व कम्मु आवरन ऊपजै, सल्य संक भय न्यान आवर्नु न्यान तं विलियौ, भय षिपिय सिद्धि
॥
हां जू ॥ ६ ॥
सुपएसं ।
सुपएस ॥
।। हां जू ॥ ७ ॥
चष्य अचष्यह जं भौ उपजै, गुहिजह भौ जु अनंतु । तारन तरन सहावह जिनियो, न्यान दिस्टि विलयंतु ॥
॥ हां जू ॥ ८ ॥
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