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जिज्ञासा- 'धर्मच आत्म धर्म च' श्लोक जोड़ने का क्या कारण है? समाधान- धर्मोपदेश में 'भगवान ने आत्म धर्म रूप धर्म की प्रर्वतना की ' ऐसा उल्लेख है, इसी भाव को
दृढ़ करने के लिये 'धर्मं च आत्म धर्मं च' श्लोक दिया गया है। जिज्ञासा- 'चिन्त्यं नाशनं ज्ञानं' श्लोक क्यों नहीं है? समाधान- 'चिन्त्यं नाशनं ज्ञानं' श्लोक प्राचीन प्रतियों में नहीं है। जिज्ञासा- पंच ज्ञान को पंचम ज्ञान क्यों किया गया है? समाधान- पंचज्ञान विवेक संपूर्ण आदि वाक्य में 'पंचमज्ञान धर्तार' पुरानी प्रतियों से लिया गया है
जिसका अर्थ है पंचम ज्ञान को धारण करने वाले। पंच ज्ञान का अर्थ है पाँच ज्ञान, तो पाँच ज्ञान एक साथ किसी भी जीव को नहीं होते। एक साथ एक जीव को चार ज्ञान तक हो सकते हैं,
केवलज्ञान एक ही होता है। जिज्ञासा- 'सम्मत्त सलिल पवहो' से सम्यक्त्व की महिमा को क्यों जोड़ा है? समाधान- सो कैसी है सम्यक्त्व की महिमा ? इसके साथ 'सम्मत्त सलिल पवहो' प्रसंग के अनुरूप है। जिज्ञासा- "सम्मत्त सलिल पवहो' गाथा में क्या किया है ? समाधान- 'सम्मत्त सलिल पवहो' अष्ट पाहुड़ ग्रंथ में दर्शन पाहुड़ की सातवीं गाथा है, जो ग्रंथ के आधार
पर शुद्ध की गई है। जिज्ञासा- अतीत की चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर कौन थे? समाधान- गतोत्सर्पिणी आदि पैराग्राफ में अंतिम तीर्थंकर के श्री सम्पतनाथ,सन्मति, सम्पतिनाथ,
शांतिनाथ आदि नाम पढ़े जाते हैं, जो उपयुक्त नहीं हैं। त्रिकाल की चौबीसी की माहिती के
अनुसार अंतिम तीर्थंकर श्री अनन्तवीर्य जी थे यह नाम उचित है जो लिख दिया गया है। जिज्ञासा- सिद्धार्थ वन और चन्द्रकांत मणि की शिला क्या है? समाधान- आदिनाथ भगवान के दीक्षा प्रसंग के समय" इन्द्र आयकर विमला नामक पालकी में बैठाय
उत्सव सहित आकाश मार्ग से कैलाश पर्वत पर ले गये। तहाँ पांडुक शिला ऊपर" ऐसा वाक्य पढ़ा जाता है। वस्तुतः कैलाश पर्वत से आदिनाथ भगवान मोक्ष गये हैं, उनकी दीक्षा कैलाश पर्वत पर नहीं हुई और कैलाश पर्वत से पांडुक शिला का कोई संबंध नहीं है क्योंकि पांडुक शिला सुमेरु पर्वत पर ही होती है। सभी तीर्थंकरों का जन्म कल्याणक वहीं होता है। जैसा मंदिर विधि में भगवान महावीर स्वामी के जन्म के समय का प्रसंग है - " पांडुक शिला पर ले जायकर प्रभु का जन्म कल्याणक किया"।फिर आदिनाथ भगवान की दीक्षा के समय वन और शिला कौन सीथी यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है। इस संदर्भ में चौबीस तीर्थंकर महापुराण में पृष्ठ ४७-४८ पर लिखा है - " अयोध्या से थोड़ी दूर सिद्धार्थ नामक वन में आकर एक पवित्र शिला पर वैरागीनाथ विराजे । चन्द्रकांत मणि की वह शिला ऐसी शोभायमान हो रही थी......."| इस प्रकार आदिनाथ भगवान ने सिद्धार्थ वन में चन्द्रकांत मणि की शिला पर विराजमान होकर दीक्षा धारण की। श्री जैनेन्द्र सिद्धांत कोष भाग-२, पृष्ठ ३८३ पर और श्रीयतिवृषभाचार्य कृत तिलोय पण्णत्ति में भी यही वर्णन है।