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________________ ४ अनुमोदना, क्रोध, मान, माया, लोभ ( इन सबका आपस में गुणा करने पर) १०८ प्रकार से निरन्तर कर्मों का आस्रव बंध करता रहता है। बोलते विचारते, उठते बैठते, आते जाते खाते पीते, सोते जागते में, - - मार्ग बनता है। इस अभिप्राय को हे भाई! आठ पहर की साठ घड़ी आत्मा को धर्म लाभ होय, कर्मन की होय है।" व्यापार कामधंधा करने में सतत् कर्मास्रव होता है। चौबीस घंटे की दिनचर्या में जीव पाप कर्म का बहुभाग उपार्जित करता है। इस सबसे परे होकर अपने इष्ट का आराधन थोड़ी भी देर के लिये करता है तो हित का मंदिर विधि में भी स्पष्ट किया है " इष्ट ही दर्शन, इष्ट ही ज्ञान ऐसा जानकर में एक घड़ी, दो घड़ी स्थिर चित्त होय, देव गुरू धर्म को स्मरण करे तो इस क्षय होय और धर्म आराध्य - आराध्य जीव परम्परा से निर्वाण पद को प्राप्त इस प्रकार मंदिर विधि करने से पाप कर्म की अनुभाग शक्ति अर्थात् फलदान शक्ति मंद पड़ती है। पुण्य कर्म की अनुभाग अर्थात् फलदान शक्ति में वृद्धि होती है। जब शुभ भावपूर्वक सच्चे देव गुरू धर्म का आराधन, गुणानुवाद किया जाता है तो लेश्या विशुद्धि भी होती है अर्थात् अशुभ लेश्या के परिणाम बदलते हैं और शुभ लेश्या होती है । जो वर्तमान जीवन में सुखशांति से रहने में कारण बनती है और इससे धर्म की प्राप्ति की भूमिका तैयार होती है । मंदिर विधि का श्रावकचर्या से क्या संबंध है ? आचार्य श्री जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ने श्री तारण तरण श्रावकाचार जी ग्रंथ में षट् आवश्यक का वर्णन दो रूप में किया है। अशुद्ध षट् आवश्यक गाथा ३१० से ३१९ तक तथा श्रावक के शुद्ध षट् आवश्यक गाथा ३२० से ३७७ तक वर्णन किये गये हैं। देव आराधना, गुरू उपासना, शास्त्र स्वाध्याय, संयम, तप और दान यह श्रावक के षट् आवश्यक होते हैं। यह श्रावक के जीवन की प्रतिदिन की चर्या है । प्रतिदिन षट् आवश्यक के पालन करने से ही श्रावक धर्म की महिमा होती है। मंदिर विधि करने से श्रावक के यह षट् आवश्यक कर्म पूर्ण होते हैं। सो किस प्रकार ? तत्त्व मंगल में देव गुरू (धर्म) की आराधना है। चौबीसी विदेह क्षेत्र के बीस तीर्थकर, विनय बैठक में और नाम लेत पातक करें स्तवन में देव गुरू की महिमा है। इस प्रकार विभिन्न स्थलों पर हम देव आराधना, गुरू उपासना करते हैं । धर्मोपदेश तथा शास्त्र सूत्र सिद्धांत की व्याख्या में शास्त्र स्वाध्याय पूर्ण होता है। मंदिर विधि करते समय मन और इन्द्रियाँ वश में रहने से संयम, इच्छाओं का निरोध होने से तप और प्रभावना स्वरूप प्रसाद तथा चार दान के अंतर्गत व्रत भंडार देने से दान संपन्न होता है। इस प्रकार मंदिर विधि करने से श्रावक चर्या संबंधी षट् आवश्यक कर्म पूर्ण होते हैं । मंदिर विधि से विशेष उपलब्धि क्या होती है ? - मंदिर विधि के द्वारा हमें देव अदेव, गुरू- कुगुरू, धर्म-अधर्म, शास्त्र कुशास्त्र, सूत्र असूत्र आदि सत् - असत् के बोध के साथ ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की महिमा और रत्नत्रय को अपने जीवन में धारण करने का मार्गदर्शन प्राप्त होता है। श्री गुरू महाराज के नौ सूत्र सुधरे थे उनका महत्त्व जानने में आता है तथा अपने सूत्रों को सुधारने की भी प्रेरणा प्राप्त होती है। इसके साथ ही सिद्धांत का सार समझकर स्वयं के जीवन में मुक्ति मार्ग बनाने का पथ प्रशस्त होता है यही मंदिर विधि से विशेष उपलब्धि होती है । मंदिर विधि कैसे करें ? मंदिर विधि अत्यंत विनय और श्रद्धा भक्ति पूर्वक करना चाहिये। उपयोग की स्थिरता और चित्त की एकाग्रता पूर्वक उमंग उत्साह के साथ मंदिर विधि करने का आनंद अद्भुत ही है। कषाय की मन्दता रूप
SR No.009719
Book TitleMandir Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages147
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size1 MB
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