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२. गुरू स्तुति अनुभूति में अपनी जिन्होंने, आत्म दर्शन कर लिया । समकित रवि को व्यक्त कर, मिथ्यात्व का तम क्षय किया | रागादि रिपुओं पर विजय पा, कर दिये सबको शमन । उन वीतरागी सदगुरू को, नित नमन है नित नमन ॥ १ ॥ जिनके अचल सद्ज्ञान में, दिखता सतत् निज आत्मा । वे जानते हैं जगत में, हर आत्मा परमात्मा ॥ जो ज्ञान चारित लीन रहते, हैं सदा विज्ञान घन । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥ २ ॥ जिनको नहीं संसार की, अरू देह की कुछ वासना । जो विरत हैं नित भोग से, पर की जिन्हें है आस ना ॥ निर्ग्रन्थ तन इसलिये दिखता, है सदा निर्ग्रन्थ मन । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥ ३ ॥ परित्याग जिनने कर दिया, दुान आरत रौद्र का । शुभ धर्म शुक्ल निहारते, धर ध्यान चिन्मय भद्र का ॥ जग जीव को सन्मार्ग दाता, इस तरह ज्यों रवि गगन । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥ ४ ॥ उपवन का माली जिस तरह, पौधों में जल को सिंचता । मिट्टी को गीली आर्द्र कर, वह स्वच्छ जल को किंचता ॥ त्यों श्री गुरू उपदेश दे, सबको करें आतम मगन । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥ ५ ॥ जो ज्ञान ध्यान तपस्विता मय, ग्रन्थ चेल विमुक्त हैं । निर्ग्रन्थ हैं निश्चेल हैं, सब बन्धनों से मुक्त हैं | संस्कार जाति देह में, जिनका कभी जाता न मन । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन || ६ ॥ जो नाम अथवा काम वश, या अहं पूर्ति के लिये । धरते हैं केवल द्रव्यलिंग, वह पेट भरने के लिये ॥ ऐसे कुगुरू को दूर से तज, चलो ज्ञानी गुरू शरण । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥ ७ ॥ सर्प अग्नि जल निमित से, एक ही भव जाय है । लेकिन कु गुरू की शरण से, भव भव महा दु:ख पाय है ॥ काष्ठ नौका सम सुगुरू हैं, ज्ञान रवि तारण तरण । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥ ८ ॥