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सत देव के शुभ नाम पर, जो अदेवों को पूजते । वे मूढ रवि का उजाला तज, अंधेरे से वह धर्म बह्वल बंधी बेड़ी, कह रही थी चेतनमयी सत देव की शत शत करूं मैं वन्दना । ९ ।।
जूझते ॥ चन्दना ।
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छानते ॥ प्रवंचना |
जग जीव लौकिक स्वार्थ वश तो कुदेवों को मानते । अज्ञान भ्रम को बढ़ाते, चलनी जग जीव खुद के साथ ही, इस चेतनमयी सतदेव की शत शत सद्गुरू तारण तरण कहते, कहते जाग जाओ तुम स्वयं शुद्धात्मा को जानकर, सब मेट दो अज्ञान अज्ञान भ्रम सत देव ब्रह्मानंद मय, कर दे जगत की भंजना चेतनमयी सतदेव की, शत शत करूं
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से पानी विधि करें
करूं
मैं वन्दना || १० ||
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मैं वन्दना ॥। ११ ॥
जयमाल
निज चैतन्य स्वरूप में, पर का नहीं प्रवेश | चिन्मय सत्ता का धनी, है सच्चा परमेश || १ ||
अरस अरुपी है सदा, शुद्धातम धुव धाम | निश्चय आतम देव को शत शत करूं प्रणाम || २ ||
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अरिहन्त सिद्ध व्यवहार से जानो सच्चे देव निश्चय सच्चा देव है, शुद्धातम स्वयमेव ॥ ३ ॥ वीतराग देवत्व पर चेतन का अधिकार | सिद्ध स्वरूपी आत्मा, स्वयं समय का सार ॥ ४ ॥ दर्शन ज्ञान अनन्त मय, वीरज सौख्य निधान । पहिचानो निज रूप को, पाओ पद निर्वाण ॥ ५ ॥
अट्ठसट्ठ तीरथ परिभमइ, मूढ़ा मरइ भमंतु अप्पा देउ ण वंदहि, घट महिं देव अणंदु आणंदा रे ||
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अज्ञानी अड़सठ तीर्थों की यात्रा करता है, इधर-उधर भटकता हुआ अपना जीवन समाप्त कर देता है किन्तु निजात्मा शुद्धात्मा भगवान की वंदना नहीं करता है। अपने ही घट में महान आनंदशाली देव है। हे आनंद को प्राप्त करने वाले ! अपने ही घट में महान आनंद शाली देव है।
(श्री महानंदि देव कृत आणंदा गाथा - ३)