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प्रभाती
(१) मोहनींद से जग जा रे चेतन प्रभ समरण की बेरा रे। प्रभु सुमरण की बेरा रे चेतन, आत्म मनन की बेरा रे॥ नरक निगोद के दु:ख ही भुगतत, बीतो काल घनेरा रे....|| एक श्वास में अठदस बारा, जन्मा मरा बहुतेरा रे....|| पशुगति के बहु दुःख भी भुगते, रोता फिरा घनेरा रे....|| कबहुं न मौका मिलियो ऐसो, देवगति भी देखा रे....|| अब जो मौका ऐसो मिलो है, करले तू सुलझेरा रे....|| अब के चूके दुःख बहु पावे, कोई नहीं है तेरा रे....|| मानुष भव को पाया रे, 'मोही' तारण गुरु का चेरा रे....|| जल्दी उठ के निज हित करले, कहा मान ले मेरा रे....||
(२) प्रातः काल नित उठके रे चेतन, आत्म मनन करना चाहिए । मैं हूँ कौन कहाँ से आया, मुझको क्या करना चहिए | यह संसार अनादि निधन है, इससे अब तरना चहिए...... चारों गति में दुःख ही दुःख हैं, कैसे के बचना चहिए ।। मुश्किल से यह नरगति पाई, भूल रह्यो कछु सुध नहिं है..... विषय भोग में पागल हो रहो, मोह में पड़ो सुनत नहिं है | प्रभु को सुमरन आत्म मनन कर, सत्संगत करना चहिए .... कछु नहिं धरो विषय भोगन में, अब तो नहिं फंसना चहिए ॥ अब तो संयम धर ले 'मोही', भव दधि से तरना चहिए....
(३) जगो जगो अब जगो तुम चेतन, अब चलने की बेरा रे ॥ बहुत समय सोते ही बीत गओ, हो गओ अब तो उजेरा रे....|| पर में काये भटकत फिर रहो, कोई नहिं है तेरा रे....|| अलख निरंजन परमब्रह्म है कहा मान ले मेरा रे....|| ज्ञान ध्यान श्रद्धान के द्वारा, करले तू सुलझेरा रे....|| मोह राग विषयनि को छोड़ दे, तारण गुरु का चेरा रे....|| ज्ञानानंद उठो अब जल्दी, हो गओ अब तो सबेरा रे....||