________________
अपनी बात
का लक्ष्य होने से धर्म के प्रति आस्था
सद्गुरू श्री
के
मु प्रति पूर्ण श्रद्धा भक्ति है, उनके ग्रंथों के अवलम्बन से मुक्ति मार्ग पर चलने का प्रयास कर रहा हूँ।
सन् १९८७ में बरेली में साधनारत् मालारोहण का अध्ययन स्वाध्याय चल रहा था। कुछ लिखने का भाव आया लिखने लगा, दस गाथा तक लिखा, इसमें अपनी बात पकड़ में आ गई, उसकी शुद्धि के लिए लग गया, लिखना छूट गया। पुनः सन् १९९० में बरेली में साधना का योग बना, फिर मालारोहण सामने आई, उसी क्रम में दिनांक ७.१०.९० से ११.१.९१ तक सहज में यह लिखने में आ गया, इसमें मेरा कुछ नहीं है, मैंने तो सिर्फ फिटिंग की है। जैसे कपड़ा किसी का होता है- सीने वाला कोई और होता है- बीच में कांट-छांट करने वाला टेलर मास्टर कहलाता है ऐसे ही यह सब रचना
-
-
सद्गुरू तारण स्वामी की है- सिलाई टीका में शब्द पूर्व आचार्य ग्रंथों के हैं। मेरी यह अनाधिकार चेष्टा है- क्योंकि बुद्धि का क्षयोपशम न होने से ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूँ फिर भी धृष्टता पूर्वक साहस किया है। अपनी बुद्धि, समझ के अनुसार सद्गुरू के अभिप्राय और शब्दों के अर्थ को वैसा ही रखने का प्रयास किया है- इसके बाद भी प्रमाद-अज्ञानतावश जो भूल हो गई हो - सद्गुरू और ज्ञानी जन क्षमा करेंगे।
पूर्व में इस ग्रंथ की टीका श्रद्धेय ब्र. श्री शीतल प्रसाद जी, श्रद्धेय ब्र. श्री जय सागर जी, कवि भूषण स्व. श्री अमृत लाल जी चंचल, ब्रा. ब्र. श्री बसंत जी ने भी की है। एक दो टीका पुरानी, विद्वानों द्वारा की गई हैं। आपको जो जैसी उचित लगे मेरी गल्तियों से मुझे अवगत करायें।
यह बत्तीस गाथाओं का बड़ा अनुपम ग्रंथ है- इसमें समयसार का सार-सम्यक् दर्शन का आधार है, इस ग्रंथ की टीका करने के प्रेरणा स्रोत प्रिय सखा, ब्र. श्री नेमीजी हैं, जिनके द्वारा पूरा समर्थन सहयोग मिलने से - ज्ञानानंद - निजानंद - सहजानंद पूर्वक इस मार्ग पर चल रहा हूँ। यह टीका अपने लिए लिखी है- इसमें आपको कुछ मिले यह आपकी बात है तथा और भव्य जीव-ज्ञानीजन इसकी विस्तृत टीका करें - धर्म का प्रकाश हो ऐसी मंगल भावना है।
ज्ञानानंद
बरेली
दिनांक - १४.१.९१ संक्रांति पर्व
15
* तत्व मंगल *
देव को नमस्कार
तत्वं च नंद आनंद मउ, चेयननंद सहाउ । परम तत्व पद विंद पड, नमियो सिद्ध सुभाउ || गुरू को नमस्कार
गुरू उवएसिड गुपित सड़, गुपित न्यान सहकार तारण तरण समर्थ मुनि, गुरू संसार निवार ॥ धर्म को नमस्कार
धम्मु जु उत्तउ जिनवरहि, अर्थति अर्थह जोउ । भय विनास भवुजु मुनहु, ममल न्यान परलोउ ॥ देव को, गुरू को, धर्म को नमस्कार हो ।
* मंगलाचरण
चेतना लक्षणं आनंद कन्दनं, वन्दनं वन्दनं वन्दनं वन्दनं ॥ टेक ॥। शुद्धातम हो सिद्ध स्वरूपी, ज्ञान दर्शनमयी हो अरूपी ।
शुद्ध ज्ञानं मयं चेयानंदनं, वन्दनं वन्दनं वन्दनं वन्दनं ॥१॥
द्रव्य नो भाव कर्मों से न्यारे, मात्र ज्ञायक हो इष्ट हमारे ।
सुसमय चिन्मयं निर्मलानंदनं, वन्दनं वन्दनं वन्दनं वन्दनं ॥ २ ॥
पंच परमेष्ठी तुमको ही ध्या
तुम ही तारण तरण हो कहाते ।
-
शाश्वतं जिनवरं ब्रम्हानंदनं, वन्दनं वन्दनं वन्दनं वन्दनं ||३||
16