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________________ श्री मालारोहण जी जयमाल जिनने निज स्वरूप पहिचाना, करते सिद्धारोहण है। भेद ज्ञान युत सम्यग्दर्शन, यही तो मालारोहण है। शुद्धात्म तत्व अविकार निरंजन, चेतन लक्षण वाला है। ध्रुव तत्व है सिद्ध स्वरूपी, रत्नत्रय की माला है। मन शरीर से भिन्न सदा, भव्यों का अंतर शोधन है। भेद ज्ञान युत सम्यग्दर्शन, यही तो मालारोहण है ॥ निश्चय सम्यग्दर्शन होना, एक मात्र हितकारी है। पर-पर्याय से दृष्टि हटना, मुक्ति की तैयारी है। ज्ञानानंद स्वभाव ही अपना, जिनवाणी का दोहन है। भेद ज्ञान युत सम्यग्दर्शन, यही तो मालारोहण है॥ सम्यक दर्शन ज्ञान चरण ही, मोक्षमार्ग कहलाता है। महावीर की दिव्य देशना, जैनागम बतलाता है ॥ सम्यक् दर्शन बिना कभी भी, हुआ न भव का मोचन है । भेद ज्ञान युत सम्यग्दर्शन, यही तो मालारोहण है ॥ सम्यग्दर्शन सहज साध्य है, करण लब्धि से होता है। जीवन में सुखशांति आती, सारा भय गम खोता है । दृढ संकल्प रूचि हो अपनी, बंध जाता यह तोरण है। भेद ज्ञान युत सम्यग्दर्शन, यही तो मालारोहण है। मालारोहण मुक्ति देती, भव से पार लगाती है । अनादि निधन निज सत्स्वरूप का,सम्यक् बोध कराती है।। इसको धारण करने वाला, बन जाता मन मोहन है। भेद ज्ञान युत सम्यग्दर्शन, यही तो मालारोहण है। जांति पांति का भेद नहीं है, न पर्याय का बंधन है। सभी जीव स्वतंत्र है इसमें, निज स्वभाव आलम्बन है। राजा श्रेणिक प्रश्न किए, यह महावीर उद्बोधन है। भेद ज्ञान युत सम्यग्दर्शन, यही तो मालारोहण है। सम्यग्दर्शन सहित प्रथम यह, सम्यग्ज्ञान कराती है। भेद ज्ञान तत्व निर्णय द्वारा, वस्तु स्वरूप बताती है । समय सार का सार यही है, मुक्ति का सुख सोहन है। भेद ज्ञान युत सम्यग्दर्शन, यही तो मालारोहण है। १०. जो भी मुक्ति गए अभी तक, जा रहे हैं या जावेंगे। शुद्ध स्वभाव की करके साधना, वे मुक्ति को पावेंगे। जिनवर कथित धर्म यह सच्चा,दिव्य अलौकिक लोचन है। भेद ज्ञान युत सम्यग्दर्शन, यही तो मालारोहण है। निज स्वरूप का सत्श्रद्धान ही, मोक्षमार्ग का कारण है। आतम ही तो परमातम है, बतलाते गुरू तारण है॥ जब तक सम्यक् ज्ञान न होवे, जग में करता रोदन है॥ भेद ज्ञान युत सम्यग्दर्शन, यही तो मालारोहण है॥ दोहा सम्यग्दर्शन से सिंह बना, महावीर भगवान । निज आतम अनुभव करो, जो चाहो कल्याण ॥ तारण तरण की देशना, जिनवाणी प्रमाण । मालारोहण से मिले, ज्ञानानंद निर्वाण ।। ६. सभी जीव भगवान आत्मा, सब स्वतंत्र सत्ताधारी । अपने मोह अज्ञान के कारण, बने हुए हैं संसारी ॥
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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