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[मालारोहण जी
मोह मद रागादि को खंड-खंड करें, हमें भी वर्तमान में यह मनुष्य भव पुरुषार्थ योनि मिली है, सद्गुरू मार्ग दर्शक हैं, जो हमें इससे छूटने की विधि बता रहे हैं। इस कथानक की एक एक बात मार्मिक और मार्गदर्शक है स्वयं ही बुद्धि पूर्वक अपना निर्णय करें तो अपना भला होवे ।
प्रश्न- यह बात तो बहुत अच्छी तरह समझ में आ गई इस संसार के चक्र इन संकल्प विकल्पों के दुःखों से छूटने के लिये और क्या करना पड़ेगा सम्यग्दृष्टि साधक और क्या करता है बताइये ?
इनके समाधान में सद्गुरू आचार्य तारण स्वामी पांचवीं गाथा कहते हैं जो अपूर्व रहस्य से भरी हुई है साधक के लिये अमृत रसायन है - गाथा - ५
सल्यं त्रियं चित्त निरोध नित्वं, जिन उक्त वानी ह्रिदै चेतयत्वं । मिथ्यात देवं गुरू धर्म दूरं, सुद्धं सरूपं तत्वार्थ सार्धं ॥
शब्दार्थ (सल्यं त्रियं) तीनों शल्यों (मिथ्या माया निदान) को (चित्त) अपने हृदय से (निरोध) बंद करके, समाप्त करके (नित्वं) हमेशा (जिन उक्त वानी) जिनेन्द्र की कही हुई वाणी (जिनवाणी) का (हिदै चेतयत्वं) हृदय में चिन्तवन करता है (मिथ्यात देवं गुरू धर्म दूरं) मिथ्यादेव, मिथ्यागुरू, मिथ्या धर्म से दूर रहकर (सुद्धं सरूपं) अपने शुद्ध स्वरूप का ( तत्वार्थ सार्धं ) प्रयोजन भूत तत्व की साधना श्रद्धान करता है।
विशेषार्थ- जो नर संसार के दुःखों से अर्थात् भय चिन्ता संकल्प-विकल्पों से छूटना चाहता है, उसके लिये चौथी गाथा में बताया कि निश्चय से अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना आराधना करे, शुद्धात्म तत्व को ही देखे, उसी में रहे तथा व्यवहार में अपने मिथ्यात्व, मद, मोह, राग द्वेषादि भावों को तोड़े छोड़े वह शुद्ध दृष्टि तत्वार्थ का श्रद्धानी साधक है।
जब यह प्रश्न किया कि क्या इतने से ही काम चल जायेगा, संसार के दुःखों से छूट जायेगा या और कुछ करना पड़ता है ? इसके समाधान में सदगुरू
गाथा क्रं. ५ ]
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श्री तारण स्वामी यह पांचवीं गाथा कहते हैं। मुक्ति मार्ग के पथिक साधक को अध्यात्म साधना करने के लिए कितना सावधान होना चाहिये और कितना सूक्ष्म मार्ग है यह सब जानना जरूरी है। संसार में जीव को भेदज्ञान के अभाव में संकल्प-विकल्प होते हैं, जो हमेशा दुःखी चिन्तित भयभीत करते रहते हैं तथा तत्व निर्णय के अभाव में शल्यें होती हैं जो हमेशा छिदती रहती हैं। शल्य अर्थात् कांटा यह शल्यें तीन तरह की होती हैं - मिथ्या, माया, निदान । जब तक जीव निराकुल निःशल्य नहीं होता तब तक वह आनन्द में नहीं रह सकता इसीलिये तत्वार्थ सूत्र में " निःशल्योव्रती" कहा है। ? इनका स्वरूप और इनसे छूटने का उपाय
अब यह शल्य क्या बताया है।
" शल्यंत्रियं" - शल्यें तीन होती हैं - ( १ ) मिथ्याशल्य (२) मायाशल्य (३) निदानशल्य |
(१) मिथ्याशल्य - मिथ्या अर्थात् झूठी, शल्य अर्थात् कल्पना या भ्रम अर्थात् झूठी कल्पना ‘"ऐसा न हो जाये" यह शल्य मोह की तीव्रता में ज्यादा पेरती है, चैन से नहीं रहने देती। जैसे कोई कार्य करना हो, होना हो वहाँ यह मिथ्या शल्य आ जाती है "ऐसा न हो जाये" तो सब कुछ करते, होते हुये भी निश्चिन्त नहीं रह सकते जैसे कोई परिवार का सदस्य बाहर जा रहा हो, गया हो और बीच में यह मोह की शंका कुशंका रूपी मिथ्या शल्य आ जाये कि "ऐसा न हो जाये, ऐसा न हो गया हो", तो समझ लो वह व्यक्ति जब तक लौटकर नहीं आता तब तक चैन नहीं पड़ती।
(२) मायाशल्य - कंचन कामिनी कीर्ति की चाह "ऐसा नहीं ऐसा होता" सब कुछ होते हुये मिलते हुये यह तृप्त संतुष्ट नहीं रहने देती। वर्तमान का सुख भी नहीं भोगने देती, हमेशा माया के चक्कर में ही घुमाती रहती है। शेखचिल्ली जैसी कल्पनाओं का जाल इसी शल्य के अन्तर्गत चलता है। जैसे भोजन की थाली सामने आई और उसमें यह शल्य आ गई, ऐसा नहीं ऐसा होता तो, सारे भोजन का स्वाद गया। ऐसे ही धन मकान कपड़ा या कोई वस्तु