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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. ४ ]
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१. दर्शन मोहनीय - इसके तीन भेद हैं-(१) मिथ्यात्व (२) सम्यक् मिथ्यात्व (३) सम्यग्प्रकृति मिथ्यात्व।
२. चारित्र मोहनीय - इसके पच्चीस भेद हैं - अनन्तानुबंधी - क्रोध, मान, माया, लोभ । अप्रत्याख्यानावरण - क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रत्याख्यानावरण - क्रोध, मान, माया, लोभ । संज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ ।
नोकषाय - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद । इस कर्म बंध के कारण - १. केवली का अवर्णवाद २. श्रुत का अवर्णवाद ३. संघ का अवर्णवाद ४. धर्म का अवर्णवाद ५. देव का अवर्णवाद । अवर्णवाद अर्थात् निन्दा करना।
चारित्र मोहनीय-२५ कषायोदय, उसी प्रकार के तीव्र संक्लेश भाव करना, दर्शन मोहनीय की बंध स्थिति उत्कृष्ट ७० कोड़ा-कोड़ी सागर है, जघन्य अन्तर्मुहूर्त है । चारित्र मोहनीय की बंध स्थिति उत्कृष्ट ४० कोड़ाकोड़ी सागर है, जघन्य अन्तर्मुहूर्त है।
४- अन्तराय - भंडारी जैसा हर कार्य में बाधा डालता है, इसके उत्तर भेद पांच हैं- (१) दानान्तराय (२) लाभान्तराय (३) भोगान्तराय (४) उपभोगान्तराय (५) वीर्यान्तराय।
इस कर्म बंध के कारण-(१) पर के दान देने में विघ्न करना (२) पर के लाभ में विघ्न करना (३) पर के भोजनादि में विघ्न करना (४) पर के वस्त्रादि में विघ्न करना (५) पर के बल वीर्य को बिगाड़ना-बाधा डालना। इस कर्म की, उत्कृष्ट बंध स्थिति ३० कोड़ा-कोड़ी सागर है, जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है।
५-नाम कर्म - चित्रकार जैसा शरीर की रचना करता है। इसके उत्तर भेद ९३ हैं।
गति ४ - नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति, देवगति। जाति ५ - एकेन्द्री, दोइन्द्री, तीनइन्द्री, चौइन्द्री, पंचेन्द्रिय । शरीर ५ - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्मण । बंधन ५ - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्मण। संघात ५ - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्मण।
संस्थान ६ - समचतुरस्र संस्थान, न्यग्रोध परिमंडल संस्थान, स्वाति संस्थान, कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान, हुंडक संस्थान।
अंगोपांग ३ - औदारिक अंगोपांग, वैक्रियिक अंगोपांग, आहारक अंगोपांग।
संहनन ६-वजवृषभनाराच,वजनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलक, असंप्राप्तासृपाटिका संहनन।
वर्ण ५ - कृष्ण, नील, रक्त, पीत, श्वेत। गंध २ - सुरभिगंध, असुरभि गंध।
रस ५ - तिक्त, कटुक, कषैला, आम्ल, मधुर। स्पर्श ८ - कर्कश, मृदु, गुरू, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष ।
आनुपूर्वी ४ - नरकगति प्रायोग्यानुपूर्व, तिर्यंचगति प्रायोग्यानुपूर्व, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्व, देवगति प्रायोग्यानुपूर्व ।
अगुरूलघु ६ - अगुरूलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत।
विहायोगति २ - प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति।
प्रसादि १२ -त्रस, बादर, पर्याप्ति, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश: कीर्ति, निर्माण, तीर्थकर ।
स्थावरादि १० - स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्ति, साधारण, अस्थिर,