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[मालारोहण जी
कर्मों का फैलाव और बंधन कैसा है ? कितना है ? यह जानना भी जरूरी है। भेदज्ञान पूर्वक सत्श्रद्धान की अपेक्षा पर का स्वामित्वपना छूट गया, पर अभी संयोग, सम्बंध नहीं छूटा है।
इसी बात को समयसार कलश २९ में कहा है -
अनादि काल से जीव मिथ्यादृष्टि है, इसीलिये कर्म संयोगजनित हैं जो शरीर, दु:ख-सुख, राग-द्वेषादि, विभाव पर्याय उन्हें अपना ही जानता है और उन्हीं रूप प्रवर्तता है। हेय उपादेय नहीं जानता है, इस प्रकार अनन्तकाल तक भ्रमण करते हुय जब थोड़ा संसार रहता है और परमगुरू का उपदेश प्राप्त होता है कि हे भव्य जीव ! जिन शरीर आदि सुख-दुःख, मोह,
राग-द्वेष को तू अपनाकर जानता है और इनमें रत हुआ है वे तो सब ही तेरे नहीं हैं, अनादि कर्म संयोग की उपाधि है, ऐसा निश्चय जिस काल हुआ उसी काल सब विभाव भावों का त्याग है। शरीर, सुख-दु:ख जैसे थे-वैसे ही हैं, परिणामों से त्याग है क्योंकि स्वामित्वपना छूट गया है इसी का नाम अनुभव है, इसी का नाम सम्यक्त्व है।
उदाहरण - धोबी का बदला हुआ वस्त्र पहिनना, जानकारी होने पर स्वामित्वपना छूट जाना, वस्त्र अभी छूटा नहीं है।
प्रश्न- इन कर्मों का स्वरूप बन्धन कैसा है, कितना है, यह बताइये? समाधान - कर्म तीन प्रकार के होते हैं-द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म । संसार संयोगी दशा में जीव का और इन कर्मों का एक क्षेत्रावगाह, निमित्तनैमित्तिक संबन्ध है।
(१) द्रव्य कर्म अघातिया ।
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इसके आठ भेद हैं- चार घातिया, चार
चार घातिया कर्म - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय । जो आत्मा के अनुजीवी गुणों का घात करते हैं अर्थात् अशुद्ध पर्यायरूप परिणमित होते हैं।
चार अघातिया कर्म - आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय । यह जीव के
गाथा क्रं. ४ ]
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प्रतिजीवी गुणों का घात करते हैं अर्थात् बाहर की अनुकूलता - प्रतिकूलता रूप शरीरादि संयोग मिलता है।
इन आठ कर्मों की १४८ प्रकृतियाँ होती हैं, जिनके द्वारा ही जीव का और शरीरादि संसार का परिणमन चलता है। मोह की तीव्रता मन्दता से साता-असाता रूप वेदनीय कर्म का वेदन होता है।
१- ज्ञानावरण- पट वस्त्र (परदा) जैसा अपने स्वरूप को ढ़ के रहता है । इसके उत्तर भेद पाँच हैं- मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण
इस कर्म बन्ध के कारण १. प्रदोष प्रशंसा योग्य कथनी सुनकर, दुखित वृत्ति व ईर्ष्या भाव से मौन रहें, प्रशंसा नहीं करना ।
२.
३.
४.
निन्हव - जानते हुये भी ज्ञान को छिपाना ।
मात्सर्य - मेरी बराबरी करेगा, इस कारण ज्ञान न देना ।
अन्तराय - ज्ञान-दर्शन के कार्य में विघ्न करना ।
५.
आसावन - ज्ञान-दर्शन के कार्य में रोक लगाना आदि । उपघात - यथार्थ ज्ञान में दोष लगाकर घात करना, इस कर्म की उत्कृष्ट बन्ध स्थिति ३० कोड़ा कोड़ी सागर है। जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है।
६.
२- दर्शनावरण- द्वारपाल जैसा अपने शुद्ध स्वरूप का दर्शन नहीं होने देता । इसके उत्तर भेद नौ हैं-चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, निद्रा, प्रचला इस कर्म बंध के कारण ज्ञानावरण समान हैं, इस कर्म की उत्कृष्ट, जघन्य स्थिति ज्ञानावरण समान ही है ।
३- मोहनीय - यह शराब जैसा है, जो जीव को बेहोश-मदहोश रखता है, इसके उत्तर भेद अट्ठाईस हैं। विशेष दो हैं