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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. ३ ]
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प्रश्न- स्वयं को स्वयं कैसे जानें? इसके कुछ अन्तर बाह्य लक्षण बताइये कि सम्यग्दर्शन होने पर क्या स्थिति होती है- जिससे अपने आपको देख सकें? समाधान-(१) सम्यग्दर्शन क्या है? पहले इसे समझ लो, जैसे किसी जन्मांध व्यक्ति को सौभाग्य से दृष्टि आ जाये, नेत्र खुल जायें तो उसे कैसा लगता है? तथा कैसा अपूर्व अनिर्वचनीय आनंद आता है, यही स्थिति सम्यग्दर्शन होने पर होती है। जैसे किसी व्यक्ति के यहाँ तहखाने में अमूल्य निधि रखी हो जिसका उसे पता न था, पता होने पर जब वह तहखाने को खोलकर अमूल्य निधि देखता है तो उसकी क्या स्थिति होती है कैसा लगता है? यही सम्यग्दृष्टि की स्थिति है फिर वह तहखाना बंद कर देता है पर वह निधि उसकी दृष्टि श्रद्धान ज्ञान में हमेशा रहती है।
अनुभव, प्रत्यक्ष ज्ञान है अर्थात् वेद-वेदक भाव से आस्वाद रूप है और वह अनुभव पर सहाय से निरपेक्ष है। ऐसा अनुभव यद्यपि ज्ञान विशेष है तथापि सम्यक्त्व के साथ अविनाभूत है क्योंकि यह सम्यग्दृष्टि के होता है। मिथ्यादृष्टि के नहीं होता ऐसा निश्चय है। (समयसार कलश ९)
(२) सम्यग्दृष्टि की अन्तरंग स्थिति क्या होती है? जैसे बच्ची का संबंध तय कर दिया तो उसकी अंतरंग स्थिति क्या हो जाती है- घर में रहते सब कुछ करते अब यह मेरा कुछ नहीं है, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि की अंतरंग स्थिति हो जाती है कि
गेही पे ग्रह में न रचे ज्यों, जल से भिन्न कमल है।
नगर नारि को प्यार यथा, कादे में हेम अमल है॥ (१) समस्त संकल्प-विकल्प से रहित वस्तु स्वरूप का अनुभव सम्यक्त्व है।
(२) निरूपाधि रूप से जीव द्रव्य जैसा है- वैसा ही प्रत्यक्ष रूप से आस्वाद आवे इसका नाम शुद्धात्मानुभव है। (समयसार कलश ९३)
(३) शुद्धात्मानुभूति ही मोक्ष मार्ग है, इसलिए शुद्धात्मानुभूति के होने
पर शास्त्र पढने की कुछ अटक नहीं है।
(३) बाह्य लक्षण आचरण क्या होते हैं? करता हुआ-अकर्ता, भोक्ता हुआ-अभोक्ता, जैसे नौकर या मुनीम काम करता है पर उसे कोई हानि लाभ से मतलब नहीं है, मालिकपना खत्म हो जाता है, मेहमान जैसा रहता है, नौकर जैसा करता है फिर उसे घर-परिवार, संयोग सब दुःख रूप लगते हैं और इन सब संयोगों से छूटने के लिए छटपटाने लगता है।
जब निज आतम अनुभव आवे-और कछुन सुहावे । रस नीरस हो जाय ततक्षण-अक्ष विषय नहीं भावे ॥
गोष्ठी कथा कौतूहल विघटे-पुद्गल प्रीत नसावे ॥ प्रश्न - अगर यह स्थिति नहीं बन रही ऐसा समझ में नहीं आता तो
क्या करें? समाधान - जब तक यह स्थिति न बने. तब तक हमेशा भेदज्ञान-तत्व निर्णय करना चाहिए। इससे वर्तमान जीवन में सुख शांति समता रहेगी और पात्रता पकने पर काललब्धि आने पर सम्यग्दर्शन भी हो जायेगा क्योंकि
चाहे समझो पलक में, चाहे जन्म अनेक ।
जब समझे तब समझे हो, घट में आतम एक ॥ इसलिए निरंतर प्रयासरत रहना चाहिए। स्वाध्याय, सत्संग, तत्व चर्चा में अधिक समय लगायें, जितनी इस ओर की लगन रूचि होगी वैसा ही काम होगा। वैसे
बात है जरा सी, अफसाना बड़ा है।
चित्त में नहीं बैठती, तो भूत खड़ा है। इसको ही इष्ट मानकर समझने का प्रयास करें तो सहज में सब हो सकता है। प्रश्न- इसको समझने का मूल आधार क्या है और उसका उपाय
क्या है?