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[मालारोहण जी
शरीर, औदारिक शरीर व शरीर के आश्रित - इन्द्रियां, मन, वचन तथा उनके परिणमन सब मेरे आत्मा से भिन्न हैं, बंध प्राप्त कर्मों के उदय से होने वाले तीव्र कषाय या मंद कषाय के सर्व ही शुभ-अशुभ भाव मेरे आत्मा के शुद्ध स्वभाव से भिन्न हैं, मेरा कोई संबंध मन, वचन, काय की क्रिया से नहीं है, जगत में मेरे आत्मा के न कोई माता-पिता हैं, न कोई पुत्र है, न मित्र है, न कोई स्त्री है, न कोई भाई बहिन हैं, न मेरे आत्मा के कोई स्वामी है, न कोई सेवक है, न मेरा ग्राम है, न धाम है, न वस्त्र है, न आभूषण हैं, मेरा कोई संबंध किसी भी पर वस्तु से रंच मात्र भी नहीं है। अनादि संसार भ्रमण में मेरे साथ अनंत पुद्गलों का संयोग हुआ वे कर्म नो कर्म पुद्गल मेरे किसी भी गुण या स्वभाव का सर्वथा अभाव नहीं कर सके । कर्मों का आवरण होने पर भी मैं उसी तरह निरावरण रहा जैसे सूर्य के ऊपर मेघ आने पर भी सूर्य अपने तेज से प्रकाशमान रहता है। संसार अवस्था में मैंने अनेकों माता-पिता-भाईपुत्र - मित्र से संबंध पाये परन्तु वे सब निराले ही रहे मैं उनसे निराला ही रहा। चारों गतियों में बहुत से शरीर धारे व बहुत सी पर पदार्थों की संगति पाई, पर वे मेरे नहीं हुए और मैं उनका नहीं हुआ। अतएव मुझे यही श्रद्धान करना चाहिए कि मैं सदा ही रागादि विकारों से शून्य रहा व अब भी हूं और आगामीकाल में भी रहूंगा। मुझे सर्व मन के विकारों को बंद करके व सर्व जगत के पदार्थों से विरक्त होकर अपने उपयोग को अपने ही भीतर सूक्ष्मता से लगाना चाहिए। तब मुझे दिख जायेगा कि मैं ही ब्रह्म परमात्मा हूं- यही आत्म दर्शन यही आत्मानुभवन- केवलज्ञान का प्रकाशक है।
जब अन्तरंग में ज्ञान और रागादि का भेद करने का तीव्र अभ्यास करने से भेदज्ञान प्रगट होता है तब यह ज्ञान होता है कि ज्ञान का स्वभाव तो मात्र जानने का ही है, ज्ञान में जो रागादि की कलुषता, आकुलता रूप संकल्प-विकल्प भासित होते हैं वे सब पुद्गल-विकार हैं, जड़ हैं। इस प्रकार ज्ञान और रागादि के भेद का अनुभव होता है, जब ऐसा भेदज्ञान होता है तब आत्मा आनन्दित हो जाता है क्योंकि उसे ज्ञात हो जाता है कि स्वयं सदा ज्ञान स्वरूप ही रहा है, रागादि रूप कभी नहीं हुआ इसलिए सद्गुरू तारण-स्वामी
गाथा क्रं. ३ ]
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कहते हैं कि हे भव्य जीवो! अब प्रसन्न आनंद में होओ। जिसे भेदविज्ञान हुआ है वह आत्मा जानता है कि आत्मा कभी ज्ञान स्वभाव से च्युत नहीं होता, ऐसा जानता हुआ वह कर्मोदय के द्वारा तप्त होता हुआ भी रागी, द्वेषी, मोही नहीं होता; परन्तु निरंतर शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है। इस प्रकार इस शरीर के बराबर इस शरीर से भिन्न तुम सब कर्म मलादि से रहित - चेतन लक्षण ब्रह्मस्वरूपी परमात्म तत्व हो यह शरीर आदि इन्द्रिय वाले तथा अन्त:करण में होने वाले मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से ग्रसित यह विचारों का प्रवाह मोह राग द्वेषादि परिणमन भी तुम नहीं हो, यह भी तुम्हारे नहीं है क्योंकि यह तुम्हारे ज्ञानस्वरूप में दिखाई देते हैं तो देखने वाला और दिखने वाला यह दोनों भिन्न ही होते हैं इस प्रकार तुम इस शरीर मन बुद्धि से भिन्न चैतन्य स्वरूप परमात्मा हो, इस बात को सुनो समझो और स्वीकार करो, इस तत्व को स्वीकार करना सत्यश्रद्धान करना ही सच्चा पुरुषार्थ है ।
जो जीव भेदज्ञान पूर्वक इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चेतन तत्व भगवान आत्मा हूं यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं हैं, ऐसा सत्श्रद्धान अनुभूतियुत स्वीकार करता है वह सम्यक दृष्टि ज्ञानी है उसके मुक्ति का मार्ग खुल जाता है सत्य धर्म की उपलब्धि हो जाती है और वही आत्मा से परमात्मा बनता है।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि यह बात तो अधिकांशतः सर्व मनुष्य जानते हैं कि यह शरीर अलग है और जीव अलग है। जब यह जीव शरीर से निकल जाता है, तब यह शरीर जला दिया जाता है। जीव के साथ संसारी कोई भी वस्तु, धन, शरीर, स्त्री, पुत्र, परिवार, कुछ साथ नहीं जाता, जैसा जीव धर्म-कर्म करता है, वही उसके साथ जाता है; इसीलिए सभी मनुष्य बुरे कामों से डरते हैं, बचते हैं और अच्छे कार्य करते हैं इसलिए यह बताइये हम सब सम्यग्दृष्टि, मोक्ष मार्गी हैं या नहीं? समाधान - भेदज्ञान पूर्वक जो शरीरादि से भिन्न निज शुद्धात्मानुभूति कर लेता है वह सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गी है। इसलिए भेद विज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति किसे हुई या नहीं हुई ? यह तो स्वयं की स्वयं ही जानना पड़ेगी पर से इसका कोई संबंध नहीं है।