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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.२]
का वर्णन करता हूं। अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनंत सुख, अनन्त वीर्य, यह अनन्त चतुष्टय प्रत्येक आत्मा का अपना निज स्वरूप है, पर वर्तमान में संसारी दशा में कर्म मलों से आवृत होने के कारण अप्रगट रहता है। जैसे सूर्य का प्रकाश अपने में परिपूर्ण है पर बादलों के आवरण से वह ढका रहता है, जो भव्य जीव भेदज्ञान पूर्वक अपने सत्स्वरूप को जान लेता है और उसकी साधना कर अपने गुणों को प्रगट कर लेता है वह परमात्मा हो जाता है, इसी प्रकार अंतिम तीर्थंकर श्री भगवान महावीर स्वामी ने तथा अनन्त केवली परमात्माओं ने ऐसे अपने स्वरूप को प्रगट कर सिद्ध परमात्मा हो गये, मैं उन सबको नमस्कार करता हूं और उसी अरिहन्त, सिद्ध पद को पाने के लिए रत्नत्रय मयी गुणमाला अपने शुद्धात्मस्वरूप को तुम सबको जानने के लिए यह माला रोहण नामक ग्रंथ कहता हूँ। यहां सद्गुरू तारण स्वामी ने अपने लक्ष्य और अभिप्राय सहित समस्त भव्य जीवों को मुक्ति का मार्ग बताया है। अनादि संसार परिभ्रमण के चक्र से कैसे छूटा जाये। इसका संक्षेप में सार रूप कथनआगे मात्र ३० गाथाओं में किया है। यह समयसार का सार-सम्यकदर्शन का मुख्य आधार, भेदज्ञान तत्व निर्णय कराते हए सम्यग्दर्शन की महिमा और उसका फल तथा आत्मा की प्रसिद्धि परमात्मा बनने का उपाय बताया है जो अपने आप में अनुपम ग्रंथ है।
यहाँ प्रश्न आता है कि तीर्थकर अरिहन्त भगवंतों के ४६गुण होते हैं फिर भगवान महावीर के चार गुण ही प्रगट होने की बात क्यों कही है? समाधान - तीर्थकर अरिहन्त परमात्माओं के ४६ गुण होते हैं पर कैसे होते हैं यह जानना आवश्यक है
तीर्थकर के जन्म के दश अतिशय-(१) स्वेद का अभाव (२) मल का अभाव- (३) मिष्ट वचन (४) दुग्ध समान रूधिर (५) बज वृषभनाराच संहनन (६) समचतुरस्र संस्थान (७) सुन्दर रूप (८) सुगंधता (९) १००८ लक्षण (१०) अतुलबल।
केवलज्ञान के दश अतिशय - (१) जीव बध नहीं (२) सुभिक्ष चहुं
ओर (३) उपसर्ग का अभाव (४) आकाश में गमन (५) कवलाहार नहीं (६) चतुर्मुख पना (७) ईश्वरपना (८) छायारहित पना (९) पलक न लगना (१०) नख केश नहीं बढ़ना।
देवकृत चौदह अतिशय- (१) अर्धमागधी भाषा (२) बैर रहित पना (३) षट् ऋतु के फल फूल की वर्षा (४) पृथ्वी दर्पण सम (५) सर्व धान्य फलना (६) जनमन हर्ष (७) धूल कंकट रहित भूमि (८) सुगंधपना (९) कमलों पर गमन (१०) निर्मल आकाश (११) जल की वर्षा (१२) मंगल द्रव्य (१३) धर्म चक्र (१४) जय-जय शब्द, चौदह अतिशय।
आठ प्रातिहार्य - (१) अशोक वृक्ष (२) दिव्य ध्वनि (३) चौसठ चमर (४) भामंडल (५) सिंहासन (६) छत्रत्रय (७) पुष्प वृष्टि (८) दुन्दुभि शब्द।
इस प्रकार यह ४२ गुण तो तीर्थंकर प्रकृति के पुण्य की महिमा हैइनसे आत्मा का तो कोई संबंध ही नहीं है। आत्मा तो रत्नत्रयमयी (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र) परम सुख-परम शांति परम आनंद का धाम-अनंत चतुष्टय का धनी है। जिनके प्रगट होने पर चार घातिया कर्म क्षय हो जाते हैं। केवलज्ञान-सर्वज्ञता-परमात्म पद प्रगट हो जाता है इसीलिए वंदनीय तो चार गुण हैं-जिनके प्रगट होने पर अठारह दोष विला जाते हैं -(१) क्षुधा का न लगना (२) प्यास का न लगना (३) जरा का न आना (४) शरीर संबंधी व्याधि न होना (५)जन्म न होना (६) मरण का न होना (७) सप्तभयों का न होना (८) आठ मद का न होना (९) राग न होना (१०) द्वेष न होना (११) मोह न होना (१२) चिन्ता न होना (१३) रति न होना (१४) निद्रा का न आना (१५) आश्चर्य न होना (१६) विषाद न होना (१७) स्वेद न आना (१८) खेद न होना, यह १८ दोष नहीं होते।
प्रश्न - शुद्धात्म तत्व, आत्मा परमात्मा और जीव अलग-अलग हैं या एक हैं? समाधान - यह तीनों एक ही है, मात्र व्यवहार अपेक्षा भिन्न-भिन्न कहे जाते हैं, जो कर्म जनित पुद्गल पर्याय में एकमेक हो रहा है, उसे जीव कहते