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[मालारोहण जी
परमात्मा हैं वह इस आराध्य और नमस्कार करने योग्य हैं या निज शुद्धात्म तत्व इष्ट आराध्य है?
समाधान- देव स्वरूप- अरिहन्त, सिद्ध परमात्मा इस बात के साक्षी और प्रमाण हैं कि आत्मा ही परमात्मा है। जगत का कोई भी भव्य जीव अपने सत्स्वरूप का श्रद्धान ज्ञान और साधना करके आत्मा से परमात्मा हो सकता है इसलिए निज सत्स्वरूप शुद्धात्म तत्व ही इष्ट आराध्य है, इसी के आश्रय से कर्म क्षय-पर्याय की शुद्धि और मुक्ति होती है। पर के इष्ट-आराध्यपने सेपराधीनता कर्म बंध होता है। इसी बात को ज्ञान समुच्चय सार की टीका में ब्र. श्री शीतलप्रसाद जी ने कहा है
आत्मा का परमात्म रूप अनुभव ही निर्वाण को प्राप्त करा देता है। जब सम्यग्दर्शन की दृष्टि पैदा हो जाती है तब कर्म मल के दोष से उत्पन्न मिथ्यात्व भाव- बिल्कुल गल जाता है। अपने आत्मीक पद से छूटकर पर पद में जाना चोरी है जिसने अपने आत्मा के रूप को देख लिया है कि मेरा आत्मा ही परमात्मा के समान पूर्ण ज्ञान स्वरूप है रागादि विषयों से रहित-परम चेतना मयी है, वही सिद्धि मुक्ति पाता है।
आत्म स्वभाव में रमणरूप भाव को छोड़कर पर पर्याय का आश्रय करना, शरीर के शुभ रूप आचरण को इष्ट मानना अनन्त काल चार गति मय संसार में भ्रमण कराने वाला है।
अरिहन्त भगवान सर्वदोष रहित परम शुद्ध केवलज्ञान मय हैं। उनका आत्मा-परमात्मा है, पर उनके आश्रय, उनके लक्ष्य से राग होता है- जो बंध का कारण है तथा निज शुद्धात्म तत्व के आश्रय से और लक्ष्य से वीतरागता होती है, जो मुक्ति का कारण है; अत: अरिहन्त - सिद्ध परमात्मा हमारे मार्ग दर्शक हैं- साक्षी, प्रमाण एवं पूर्ण शुद्ध दशा को प्राप्त होने के कारण वन्दनीय नमस्कार करने योग्य हैं, पर इष्ट आराध्य तो अपना शुद्धात्म तत्व ही है, जिसके आश्रय से मुक्ति होती है। जिसके आश्रय से यह अरिहन्त सिद्ध हुए हैं और यही उपदेश समस्त भव्य जीवों को दिया है- यही बात इसी ग्रंथ की ३२ वीं गाथा में कही है
गाथा क्रं. २ ]
जे सिद्ध नंतं मुक्ति प्रवेसं सुद्धं सरूपं गुणमाल ग्रहितं । जे केवि भव्यात्म समिक्त सुद्धं, ते जांति मोष्यं कथितं जिनेन्द्रं ॥ ३२ ॥
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जो अनन्त सिद्ध, सिद्धालय में विराजमान हैं उन सबने ही अपने शुद्ध स्वरूप की माला को ग्रहण कर सिद्ध पद पाया है। जो कोई भी भव्यात्मा शुद्ध सम्यक् दृष्टि होंगे अर्थात् भेदज्ञान पूर्वक अपने शुद्धात्म स्वरूप का श्रद्धान करेंगे, वे सब मुक्ति प्राप्त करेंगे, ऐसा जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है।
ज्ञानी - निश्चय-व्यवहार से समन्वय पूर्वक सम्यक् चारित्र का पालन करते हैं। अपने को सच्चा मार्ग बताने वाले परमगुरू परमात्मा सद्गुरूओं के प्रति कैसी विनय भक्ति होती है- यह दूसरी गाथा में स्पष्ट है।
गाथा - २
नमामि भक्तं श्री वीरनाथं, नंतं चतुस्टं त्वं विक्त रूपं । माला गुनं बोछन्ति त्वं प्रबोधं, नमामिहं केवलि नंत सिद्धं ॥
शब्दार्थ - ( नमामि भक्तं) भक्तिपूर्वक मैं नमस्कार करता हूं (श्री वीरनाथं) श्री वीरनाथ महावीर भगवान को (नंतं चतुस्टं) अनन्त चतुष्टय को (अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनंत सुख, अनन्त वीर्य) (त्वं विक्त रूपं) तुमने अपने स्वरूप में प्रगट कर लिया है (माला गुनं बोछन्ति) रत्नत्रय की माला आत्मा के गुणों को कहता हूँ - ( त्वं प्रबोधं) तुम्हारे जानने के लिए (नमामिहं) मैं नमस्कार करता हूं (केवलि नन्त सिद्धं) अनन्त केवली और सिद्ध परमात्माओं को।
विशेषार्थ- जिन्होंने अनंत चतुष्टयमयी अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रत्यक्ष प्रगट कर लिया है। ऐसे केवलज्ञानी श्री वीरनाथ महावीर भगवान को मैं भक्ति पूर्वक नमस्कार करता हूं और अनन्त केवलज्ञानी - अरिहन्त तथा सिद्ध भगवंतों को नमस्कार कर अन्तर आत्मा के प्रबोधन हेतु अर्थात् अपने सत्स्वरूप का बोध करने के लिए रत्नत्रय की माला शुद्ध स्वरूप के गुणों