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[मालारोहण जी
सार सिद्धान्त]
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(९) अध्यात्म में - मोह, दर्शन मोह को ही कहा है और राग-द्वेष चारित्र मोह को कहा है।
(१०) पर द्रव्य से भिन्न आत्मा का अवलोकन ही नियम से सम्यग्दर्शन है।
(११) सच्चे देव के तीन लक्षण - वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशिता।
(१२)जहाँ जिस प्रकार से वाक्य की प्रामाणिकता हो, वहाँ उसी प्रकार से उसे ग्रहण करना चाहिए।
(१३)जो पाँचों इन्द्रियों के द्वारा भोगने में आते हैं तथा इन्द्रियाँ, शरीर, मन, कर्म व जो अन्य मूर्तिक पदार्थ हैं. वह सब पुदगल द्रव्य जानों।
(१४) जिसकी आत्म विषयक श्रद्धा मन्द होती है उसका मोक्ष की प्राप्ति और संसार की समाप्ति के लिए किया जाने वाला तपश्चरण आदि श्रम व्यर्थ होता है।
(१५) आत्मा का जो परिणाम समस्त कर्मों के क्षय में हेतु है, उसे भाव मोक्ष जानो और आत्मा से कर्मों का पृथक हो जाना द्रव्य मोक्ष जानो।
(१६) चारों गतियों में से किसी भी गति वाला, भव्य, संज्ञी, पर्याप्तक, मन्द कषायी, ज्ञानोपयोगयुक्त,जागता हुआ,शुभलेश्या वाला तथा करणलब्धि से सम्पन्न जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
(१७) जिस जीव में मोक्ष प्राप्ति की योग्यता है उसे भव्य कहते हैं और सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता को लब्धि कहते हैं।
(१८) कर्मों से बद्ध भव्य जीव, अर्द्धपुदगल परावर्तन प्रमाण काल शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है क्योंकि एक बार सम्यक्त्व होने पर जीव इससे अधिक समय तक संसार में नहीं रहता, इसे ही काललब्धि कहते हैं।
(१९) सम्यग्दर्शन को प्रभु कहा है क्योंकि वह परम आराध्य है, उसी के प्रसाद से मुक्ति की प्राप्ति होती है।
(२०) जिनेन्द्र देव सम्यग्ज्ञान को कार्य और सम्यग्दर्शन को कारण कहते हैं इसलिए सम्यग्दर्शन के अनन्तर ही ज्ञान की आराधना योग्य है।
(२१) क्षायिक सम्यक्त्व, प्रगट होकर पुन: लुप्त नहीं होता, सदा रहता है, क्योंकि उसके प्रतिबन्धक मिथ्यात्व आदि कर्मों का क्षय हो जाता है। इसी से शंका आदि दोष नहीं होने से वह औपशमिक सम्यग्दर्शन से अति शुद्ध होता है। कभी भी किसी कारण से उसमें क्षोभ पैदा नहीं होता। भयंकर रूपों से हेतु और दृष्टान्त पूर्वक वचन विन्यास से क्षायिक सम्यक्त्व कभी डगमगाता नहीं है, निश्चल रहता है।
वेदक सम्यक्त्व, सम्यक्दर्शन के एक देश का घात करने वाली देश घाती सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से तथा उदय प्राप्त मिथ्यात्व आदि छह प्रकृतियों के उदय की निवृत्ति होने पर और आगामी काल में उदय में आने वाली उन्हीं छह प्रकृतियों के सदवस्था रूप उपशम होने पर वेदक अर्थात. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है । वह सम्यक्त्व चल, मल, और अगाढ़ होता है।
(२२) जो सम्यग्दर्शन को अच्छी तरह से सिद्ध कर चुके हैं उनकी विपत्ति भी सम्पत्ति हो जाती है। इतना ही नहीं किन्तु उनका नाम लेने वाले भी विपत्तियों से तत्काल मुक्त हो जाते हैं।
(२३) निर्ग्रन्थ रत्नत्रय ही प्रवचन का सार है, वही लोकोत्तर और अत्यन्त विशुद्ध है। वही मोक्ष का मार्ग है इसलिए इस प्रकार की श्रद्धा करनी चाहिए और उस श्रद्धा को पुष्ट करना चाहिए।
(२४) अधिक कहने से क्या? अतीत में जो नर श्रेष्ठ मुक्त हुये हैं और भविष्य में जो मुक्त होंगे, वह सम्यक्त्व का माहात्म्य जानो।
(२५) रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र) का नाम ही देव है अत: इन तीनों गुणों से विशिष्ट जो जीव हैं, वह देव हैं।
(२६) वस्तुत: पूर्ण रूप से शुद्धात्मा ही देव है।
(२७) चारों गतियों के जन्म मरण का दुःख सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बिना दूर नहीं हो सकता, यह सम्यग्दर्शन ही सांसारिक दु:खों से छुड़ाकर मोक्ष रूपी सुख दे सकता है ।
(२८) आत्मिक दृढ़ आस्था के बिना कोई भी व्यक्ति निर्भय नहीं हो सकता।