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[मालारोहण जी
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सार सिद्धान्त]
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* श्री मालारोहण सार सिद्धान्त *
इस तरह स्वभाव भेद, संख्या भेद, नाम भेद, कार्य भेद, लक्षण भेद, आदि होने से द्रव्य और पर्याय भिन्न है किन्तु वस्तु रूप से एक ही है। इसी कारण द्रव्य दृष्टि से वस्तु नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य है। कहा भी है पर्यायार्थिक नय से पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं किन्तु द्रव्यार्थिक नय से न उत्पन्न होते हैं, न नष्ट होते हैं अतएव नित्य हैं।
प्रश्न ९-जीव और रागादि पुदगल कमाँ का कैसा क्या सम्बंध
समाधान-जीव और रागादि पुदगल कर्मों का एक क्षेत्रावगाह निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। स्वरूप से अमूर्तिक होने पर भी अनादि संतान परंपरा से (बीजवृक्षवत्) जीव, पौद्गलिक कर्मों के साथ दूध पानी की तरह मिला हुआ है। यद्यपि उस अवस्था में भी जीव-जीव ही रहता है और पौद्गलिक कर्म पौद्गलिक ही हैं। न जीव पौद्गलिक कर्म रूप होता है और न पौद्गलिक कर्म जीव रूप होते हैं।
पौद्गलिक कर्म का निमित्त पाकर जीव में होने वाले रागादि भावों में भी वह तन्मय नहीं है, जैसे-लाल फूल के निमित्त से स्फटिक मणि लाल दिखाई देती है परन्तु वह लाल रंग स्फटिक का निज भाव नहीं है, उस समय भी स्फटिक मणि अपने श्वेत वर्ण से युक्त है। उसी तरह जीव कर्मों के निमित्त से रागादि रूप परिणमन करता है और जीव के निमित्त से पुद्गल परमाणु कर्म रूप परिणमित होते हैं, वे रागादि जीव के निज भाव नहीं है। आत्मा तो अपने चैतन्य गुण में विराजता है। रागादि उसके स्वरूप में प्रवेश किये बिना ऊपर से झलक मात्र प्रतिभासित होते हैं। ज्ञानी तो ऐसा ही जानता है क्योंकि वह आत्म स्वरूप का अनुभवी है किन्तु जो उसके अनुभवी नहीं हैं उन्हें तो आत्मा रागादि स्वरूप ही प्रतिभासित होता है, यह प्रतिभास ही संसार का बीज है।
प्रश्न १०- राग-द्वेषादि भाव किसमें कैसे पैदा होते हैं?
समाधान- जैसे पुत्र, स्त्री और पुरूष दोनों के संयोग से पैदा होता है, वैसे ही राग-द्वेषादि भाव भी जीव और कर्म के संयोग से जीव में उत्पन्न होते हैं।
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(१) मोक्षमार्ग की प्राप्ति का उपाय व्यवहार नय से तो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र है किन्तु निश्चयनय से रत्नत्रयमयी स्वात्मा ही मोक्षमार्ग है।
(२) जिसमें जीव, चार गतियों में भ्रमण करते रहते हैं तथा प्रति समय उत्पाद व्यय और धौव्य रूप वृत्ति का आलम्बन करते हैं उसे भव या संसार कहते हैं। यह भव जो हमारे सम्मुख विद्यमान है, नाना दु:खों का कारण होने से भीषण वन के तुल्य है। इसमें होने वाले शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक तथा सहज दुःख दावानल के समान हैं।
(३) धर्म का प्रारम्भ सम्यग्दर्शन से होता है। सात तत्वों का यथार्थ श्रद्धान करके निज शुद्धात्मा ही उपादेय है. इस प्रकार की रूचि का नाम सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दृष्टि पुण्य और पाप दोनों को ही हेय मानता है, फिर भी पुण्य बंध से बचता नहीं है।
(४) जीव की सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र रूप विशुद्धि को धर्म कहते हैं।
(५) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र रूप संक्लेश परिणाम को अधर्म कहते हैं।
(६) आत्मा का मिथ्यात्व, रागादि से रहित विशुद्ध भाव ही धर्म है, ऐसा मानकर उसे स्वीकार करो।
(७) सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप के मल दोष - सम्यग्दर्शन के दोष-शंकादि २५ दोष । ज्ञान के दोष-संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय । चारित्र के दोष- प्रत्येक व्रत की पांच-पांच भावनाओं का त्याग । तप के दोष-प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम का अभाव ।
(८) जीव के परिणाम निश्चयनय के श्रद्धान से विमुख होकर शरीरादि पर द्रव्यों के साथ एकत्व श्रद्धान रूप जो प्रवृत्ति करते हैं, उसी का नाम संसार है।