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श्री कमलबत्तीसी जी
मोह रागादि भाव छूटने पर उसे अपना ममल स्वभाव प्रगट हो जाता है, अनन्त चतुष्टय मयी केवलज्ञान स्वरूप दिखाई देने लगता है। इसी बात को सद्गुरू आगे गाथा में स्पष्ट करते हैंगाथा - ९
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दर्शन मोहंध विमुक्कं रागं दोसं च विषय गलियं च । ममल सुभाव उवन्नं, नंत चतुस्टय दिस्टि संदर्स ॥
शब्दार्थ - (दर्शन मोहंध) दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृति, मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व और चारित्र मोहनीय की अनन्तानुबंधी चार कषाय-यह सात प्रकृति के उपशम, क्षय, क्षयोपशम से सम्यक्दर्शन होता है (विमुक्कं) विमुक्त होने, छूटने पर (रागं दोसं) रागद्वेष (च) और (विषय) विषय, पंचेन्द्रिय के भोग (गलियं च) गल जाते हैं, छूट जाते हैं (ममल सुभाव) ममल स्वभाव परम पारिणामिक, त्रिकाली ध्रुव स्वभाव (उवन्नं) उदित हो जाता है, अनुभूति में आ जाता है (नंत चतुस्टय) अनंत चतुष्टय- अनंत दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनंत वीर्य (दिस्टि) दर्शनोपयोग में (संदर्स) दिखाई देने लगता है।
विशेषार्थ दर्शन मोहनीय के मिथ्यात्वरूप अंधकार से विमुक्त होने पर इष्ट-अनिष्ट रूप राग-द्वेष और दुखदाई विषयों की वृत्ति गल जाती है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान होने पर राग-द्वेष रूप विषय-कषाय गल जाते हैं। विकारों के गलते ही स्वयं का चिदानंद मयी ममल स्वभाव उदित होता है, अनुभूति में आ जाता है तथा अपना अनंत चतुष्टय धारी केवलज्ञान सर्वज्ञ स्वभाव दिखाई देने लगता है।
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आत्मा का मूल स्वरूप तो वीतराग विज्ञानमय है। अंतर शुद्धता हुई कि वह अनुभूति में आने लगता है तथा अरिहंत का स्वरूप वीतराग विज्ञानमय अनंत चतुष्टय धारी होता है। जीव तत्व की अपेक्षा से तो सर्व जीव समान हैं, शक्ति से तो सभी आत्मायें शुद्ध हैं परन्तु रागादि विकार अथवा ज्ञान की हीनता की अपेक्षा से जीव संसारी हैं।
आत्मा शुद्ध चिदानंद मूर्ति है, उसकी रूचि करने और राग तथा व्यवहार की रूचि छोड़ने पर जिस क्षण आत्मा के आनंद का अनुभव होता है वही निश्चय रत्नत्रय स्वरूप ममल स्वभाव है और उसमें अनंत चतुष्टय केवलज्ञान स्वभाव दिखाई देता है ।
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श्री कमलबत्तीसी जी
आत्मा में भेदज्ञान पूर्वक निज का आलम्बन लेने पर जो आत्म धर्म होता है वह अनुभव शुद्ध प्रकाश है, इसी अनुभूति में अनंत चतुष्टय मयी अरिहंत स्वरूप तथा सिद्ध स्वरूप दिखाई देता है।
जीव की शक्ति तो तीनकाल, तीन लोक को जानने की है, उसमें ज्ञान • जितने अंश में विकसित हुआ, उसी ज्ञान के विकल्प में सर्वज्ञ शक्ति प्रगट होती है। जब यह आत्मा स्वयं राग से भिन्न होकर अपने में एकाग्र होता है, तब केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाली भेदज्ञान ज्योति उदित होती है। जो सम्यग्दृष्टि हैं वे मोह जो मिथ्यात्व उससे तथा पदवी के अनुसार, राग-द्वेष से भी रहित होते हैं।
संसारी जीव वस्तुतः अनादि से संसार में पाप-पुण्य को भोगता हुआ भ्रमण कर रहा है। कभी यह जीव शुद्ध था फिर अशुद्ध हुआ, ऐसा नहीं है। कार्माण और तैजस शरीरों का संयोग अनादि से है। यद्यपि उनमें नये स्कंध मिलते हैं, पुराने स्कंध छूटते हैं इसलिये संसारी जीवों का भ्रमण रूप संसार भी अनादि है तथा यदि इसी तरह जीव कर्म बंध करता हुआ भ्रमण करता रहा तो यह संसार इस मोही, अज्ञानी जीव के लिये अनन्त काल तक रहेगा।
मिथ्यादर्शन नामक कर्म के उदय से यह संसारी जीव अपने आत्मा के सच्चे स्वरूप को भूला रहा है इसलिये कभी सच्चे सुख को नहीं पहिचाना, केवल इन्द्रियों के द्वारा वर्तता हुआ कभी सुख, कभी दुःख उठाता रहा । इन्द्रिय सुख भी आकुलता का कारण है, तृष्णा वर्धक है इसलिए दुःख रूप ही है।
मोहनीय कर्म के दो भेद हैं-दर्शन मोहनीय, चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय का एक भेद मिथ्यात्व कर्म है । चारित्र मोहनीय के भेदों में चार अनन्तानुबंधी कषाय हैं, इनसे विमुक्त होने, छूटने पर जीव को निज शुद्धात्मानुभूति होती है, इसी को सम्यक्दर्शन कहते हैं। सम्यक्दर्शन होने पर सम्यक्ज्ञान द्वारा वस्तु स्वरूप को जाना जाता है फिर राग-द्वेष विषयादि स्वयं छूटने लगते हैं, यही सम्यग्चारित्र का प्रगटपना है, इसी अनुभूति में अपना ममल स्वभाव आता है और अनन्त चतुष्टय मयी सर्वज्ञ स्वभाव केवलज्ञान दिखाई देने लगता है।
सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान सहित सम्यक्चारित्र की एक मुहूर्त की स्थिि चारों घातिया कर्मों का क्षय होकर अनन्त चतुष्टय स्वरूप अरिहंत पद प्रगट हो जाता है ।
राग और ज्ञान को लक्षण भेद से सर्वथा भिन्न करने पर ही सर्वज्ञ स्वभावी