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श्री कमलबत्तीसी जी रहने रूप स्वभाव वाला है । इससे कर्म के बीच पडा हआ है तो भी वह ज्ञानी सम्पूर्ण कर्मों से लिप्त नहीं होता। जीव चैतन्य स्वभाव वाला है और कर्म जड़ स्वभाव वाला है। रागादि भाव अचेतन अज्ञान भाव हैं अत: चेतन का अचेतन भाव से दूर रहने का ही स्वभाव है फलत: सम्यग्दृष्टि पुरूष जब तक संसार में है तब तक शुभाशुभ कर्मों के उदय को भोगेगा, यही इनको छोड़ना, त्यागना, जीतना है।
ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव जो स्व संवेदन प्रत्यक्ष से अपने स्वरूप का दर्शन कर रहा है और उसमें नि:शंक है वह जानता है कि मैं ज्ञान स्वभावी ध्रुव अचल पदार्थ हूँ। मेरा निज का ज्ञान छिनने वाला नहीं है. न नाश होने वाला है। इसके सिवाय कोई दूसरा पदार्थ मेरी कुछ हानि कर सके, मेरी सत्ता में प्रवेश कर सके या मुझ पर अपनी सत्ता जमा सके ऐसा भी नहीं है। मेरा ज्ञान दर्शन स्वभाव सदा है, सदा रहेगा, वह अचल है अर्थात् हीनाधिक भी नहीं हो सकता, न मेरे ज्ञानादि गुण, अज्ञानादि रूप बनेंगे और न मेरी सचेतन पर्याय कभी जड़ पर्याय बनेगी, तब मुझे भय किस बात का? यह निश्चय श्रद्धान ज्ञानी को है अत: सदा अपने ज्ञान स्वभाव में निर्भय रहता है।
प्रश्न-ज्ञानी ज्ञान स्वभाव में सदा कहां रहता है, क्या वह खाता-पीता नहीं है,व्यापार नहीं करता,आता-जाता नहीं है, धन संचय नहीं करता,यदि वह सब करता है तो कैसे सदा ज्ञान स्वभाव में रहता है?
समाधान-ज्ञानी चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के सब जीव होते हैं। उससे ऊपर तो अरिहन्त, सिद्ध हैं जो सम्पूर्ण ज्ञान को प्राप्त हैं उनके संबंध में प्रश्न ही नहीं उठता है। प्रश्न इन गुणस्थानों का है, इनकी चर्चा करेंगे।
१. चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि जीव, मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी कषाय से रहित है, उसकी श्रद्धा अपने स्वभाव में अपनेपन की हो गई है, पर में उसे परत्व बुद्धि आ गई है ; अत: पर रमण उस जीव के स्वप्न में भी नहीं है। अनन्तानुबंधी चारित्र मोहनीय की प्रकृति है, उसके अनुदय में सम्यकदृष्टि की पर में आसक्ति छूट गई, यही उसके पर रमण का अभाव है। उस जीव को अपने स्वरूप की दृढ श्रद्धा है और उसमें स्थित है, यही उसका चारित्र गुण है। मद मूढता और अनायतन आदि दोषों से रहित सम्यक्दर्शन की इसी स्थिरता को सम्यक्त्वाचरण कहते हैं।
श्री कमलबत्तीसी जी अप्रत्याख्यान आदि बारह कषायों तथा नौ-नो कषायों के उदय के कारण उस जीव ने अभी व्रत, संयम, धारण नहीं किया है : अत: वह अव्रती कहा गया है तथापि वह खाना-पीना, आना-जाना, धन संचय करना आदि जो भी क्रियायें करता है, अपने स्वरूप को न भूलकर ही करता है। ज्ञान स्वभावी निज आत्मा की श्रद्धा उसे सदाकाल रहती है, इसी से कहा गया है कि वह सम्यक्दृष्टि जीव सदा ज्ञान स्वभाव में ज्ञायक रहता है।
२. पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक एकदेश व्रती है अत: वह शेष आठ कषायों की विद्यमानता में अपने पद के योग्य वस्तु का संग्रह करता है। पद के योग्य का तात्पर्य यह है कि श्रावक की ग्यारह प्रतिमायें होती हैं उनमें क्रमश: पंचेन्द्रियों के विषय तथा तत्पोषक बाह्य पदार्थ छूट जाते हैं अत: जिस प्रतिमा रूप पदवी में जितना त्याग है, उतने के संचय का व सम्हाल का तो प्रश्न ही नहीं है, जितना शेष बचा है, उसकी साज संभाल करता है, तदनुसार पंचेन्द्रिय के विषय भोगता है तथापि उन्हें हेय मानता है अत: जहां रूचि है, रति है, उसी में लीनता है इसलिए उसे भी ज्ञान स्वभाव में लीन रहता है ऐसा कहना सुसंगत है।
३. षष्टम गुणस्थान वाले श्रमणों की तो बात ही निराली है, मोह के साथ-साथ उनके बारह कषायों का भी अभाव हो चुका है अतएव सम्पूर्ण पापों से उनका संबंध छूट गया है। उठने बैठने में,खाते-पीते हुए, सोते हुए भी वे सावधान हैं, अपने में प्रमाद दशा न आवे इसके लिए सन्नद्ध हैं अत: उनका भी ध्यान सदा स्व रमण पर ही रहता है।
आगे सातवें से बारहवें गुणस्थान तक केशानी तो ध्यान अवस्थित हैं, वे केवल आत्म निष्ठ है
कर्म के फल के प्रति उदासीन ज्ञानी के कर्माश्रव नहीं होता, पूर्वबद्ध कर्मों को उदय में आने से वह रोक नहीं सकता अत: उसकी इच्छा के बिना भी वे उदय में आते हैं तथापि उस उदय स्थिति में ज्ञानी, कर्म के परवश नहीं होता। किन्तु अपने ममल स्वभाव की श्रद्धा के अनुसार अपने ज्ञान स्वभाव में लीन रहता है। वह अपना उपयोग अन्यत्र न जावे अपने में रहे, यही पुरुषार्थ करता है।
इस प्रकार ज्ञान वैराग्य के बल से ज्ञानी अपने आत्म स्वरूप में लीन रहता है और यह जनरंजन राग, कलरंजन दोष, मनरंजन गारव छूट जाते हैं। यह
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