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श्री कमलबत्तीसी जी ऐसी विपरीत श्रद्धा स्वभाव व विभाव को पृथक् जानने रूप विचार भी नहीं करने देती।
स्व-पर का श्रद्धान होने पर, अपने को पर से भिन्न जाने तो स्वयं के आश्रय से संवर निर्जरा रूप सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र होता है और पर द्रव्यों का अपने से भिन्न रूप श्रद्धान होने पर, पर के लक्ष्य से होने वाले पुण्य-पाप व आश्रव-बंध छूटने लगते हैं यही मुक्ति मार्ग है।
प्रश्न-जब आत्मा शुख मुक्त सिद्ध के समान है फिर यह अशुख पर्याय कर्मादिका चक्कर कैसा क्या है?
समाधान- आत्मा, स्वभाव से शुद्ध मुक्त सिद्ध के समान है परन्तु अनादि से अपने स्वभाव का विस्मरण होने से अज्ञान, मिथ्यात्व रूप परिणमन चल रहा है, इसी से यह अशुद्ध पर्याय और कर्मादि का संयोग चल रहा है। जब जीव का विभाव रूप परिणमन चलता है तब कर्मों का आश्रव बंध होता है, कर्मावरण से पर्याय का अशुद्ध रूप परिणमन चलता है और जब जीव का स्वभाव रूप परिणमन चलता है तब कर्मों की निर्जरा होती है । कर्मावरण मिटने से पर्याय शुद्ध रूप होती जाती है, ऐसा जीव का और कर्मों का निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है।
प्रश्न- यह जीव और कमों के निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध का मूल आधार क्या है और इससे छूटने का उपाय क्या है?
इसके समाधान में श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य महाराज आगे गाथा कहते हैं
गाथा-६ कम्म सहावं विपनं, उत्पत्ति षिपिय दिस्टि सभावं । चेयन रूव संजुत,गलियं विलियं ति कम्मबंधानं ॥
शब्दार्थ- (कम्म) कर्म (सहावं) स्वभाव से (षिपन) क्षय होने, नष्ट होने वाला है (उत्पत्ति) पैदा होना, आस्रव बंध होना (पिपिय) क्षय होना (दिस्टि) जीव का दर्शनोपयोग (सभावं) सद्भाव पर है (चेयन) चैतन्य (रूव) स्वभाव में (संजुत्तं) संयुक्त, लीन रहना (गलियं) गल जाते हैं। (विलियं) विला जाते हैं, क्षय हो जाते हैं (ति) तीन प्रकार के (कम्म) कर्म (बंधानं) बंधे हुए।
विशेषार्थ- कर्म, स्वभाव से नाशवान हैं अर्थात् कर्मों का स्वभाव क्षय होने का है, कर्मों का उत्पन्न होना, अर्थात् आश्रव बंध होना और क्षय होना,
श्री कमलबत्तीसी जी दृष्टि के सद्भाव पर निर्भर है, पर पर्याय पर रागादि विकार यक्त दष्टि से कर्मों का आश्रव बंध होता है और अपने ममल स्वभाव पर दृष्टि होने से कर्म क्षय होते हैं। अपने चैतन्य स्वरूप त्रिकाली ध्रुव स्वभाव में लीन रहने से तीनों प्रकार के (द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म) कर्मों के बंधन विला जाते हैं।
सद्गुरू ने यह करणानुयोग का सार, कर्म सिद्धान्त का पूरा निर्णय, निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का पूरा सिद्धांत एक गाथा में भर दिया, यह गाथा जैनागम का सार है।
कर्म स्वभाव से नाशवान, क्षय होने वाले हैं क्योंकि कर्म पुद्गल जड़ हैं। कार्माण वर्गणाओं का समूह कर्म कहलाता है। पुद्गल परमाणु द्वारा बनी हुई, हर वस्तु मर्यादित है। इसके बाद नष्ट होना उसका स्वभाव है। चर्म चक्षुओं द्वारा जो भी दिखाई दे रहा है यह सब पुद्गल का ही परिणमन है जो सब क्षणभंगुर नाशवान परिवर्तनशील है। कार्माण वर्गणायें सूक्ष्म होती हैं, कर्म बन्धोदय दिखाई नहीं देता पर अनुभव में आता है। इन कर्मों के द्वारा ही यह शरीरादि का परिवर्तन होता है। इन कर्मों का आश्रव बंध होना और निर्जरा क्षय होना, यह जीव की दृष्टि के सद्भाव पर है। बस यही निमित्त-नैमित्तिक सम्बंध है, जो सिद्धांत परम्परारूप अनादि काल से चल रहा है। जीव की दृष्टि दर्शनोपयोग बाहर पर पर्याय पर है। रागादि भाव चल रहे हैं, इससे ही कर्मों का आश्रव बन्ध होता है।
जीव सम्यकदृष्टि ज्ञानी है उसकी दृष्टि स्वभाव पर है तो कर्म क्षय होते हैं और जहाँ अपने चैतन्य परम पारिणामिक भाव ध्रुव स्वभाव में लीन हुआ तो तीनों प्रकार के बंधे हुये कर्म बन्धन गल जाते, विला जाते, क्षय हो जाते हैं।
शानावरण, वर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, नाम, आयु, गोत्र, वेदनीय, यह आठ, द्रव्य कर्म कहलाते हैं।
इनकी एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृतियां होती हैं। संसार में सब जीवों का शरीरादि संयोग का परिणमन इन कर्म प्रकृतियों के आधार से होता है। मोह, राग, द्वेषादि भाव, भाव कर्म कहलाते हैं।
इन भाव कर्मों से द्रव्य कर्म, बंधते हैं और द्रव्य कर्म के निमित्त से भाव कर्म होते हैं। यह भाव कर्म हैं तो पुद्गल कर्म वर्गणायें, पर यह भाव होते जीव के हैं, पुद्गल जड़ में यह कोई मोह-राग, द्वेषादि भाव नहीं होते।
प्रश्न- जब यह भाव कर्म जड़ हैं,पुद्गल कर्म वर्गणायें हैं फिर यह जीव के क्यों होते हैं?