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श्री कमलबत्तीसी जी
प्रश्न- इन कर्मादि पर्यायों के गलने विलाने क्षय होने का उपाय क्या है ?
इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैंगाथा - ५
नंद अनंदं रूवं, चेयन आनंद पर्जाव गलियं च । न्यानेन न्यान अन्मोयं, अन्मोयं न्यान कम्म विपनं च ॥
शब्दार्थ - (नंद) सुख स्वभाव (चार संख्या का बोधक ), चार अनंत चतुष्टयमयी (अनंदं) आनंद (रूवं) अपना सत्स्वरूप है ( चेयन आनंद ) चिदानंद, ज्ञानानंद में (पर्जाव) पर्याय (गलियं) गल जाती है (च) और (न्यानेन ) ज्ञानोपयोग (न्यान अन्मोयं) ज्ञान में लीन होना, चिंतन-मनन करना (अन्मोयं न्यान) ज्ञान स्वभाव में लीन रहने से (कम्म षिपनं) कर्म क्षय हो जाते हैं (च) और।
विशेषार्थ अपना सत्स्वरूप, आत्मा सुख स्वभावी अनंत चतुष्टय धारी आनंदमयी है। हमेशा अपने में प्रसन्न, सुखी, आनंद, चिदानंद में रहने से पर्याय गल जाती है और दर्शन ज्ञानोपयोग के स्वभाव में लीन रहने से सारे कर्म क्षय हो जाते हैं ।
अभी धर्म की महिमा, अपने सत्स्वरूप की सत्ता शक्ति को नहीं जाना, अपना स्वाभिमान, बहुमान नहीं आया, इसीलिए इन कर्मादि पर्यायों से इतना भयभीतपना रहता है। इनकी सत्ता मानते हो, इन्हें महत्व देते हो, अपनी सत्ता शक्ति को देखा जाना नहीं है। अपना आत्म स्वरूप सुख स्वभावी आनंदमयी ज्ञानानंद स्वभावी है। जो ज्ञानी साधक अपने सुख स्वभाव ज्ञानानन्द में प्रसन्न मस्त रहते हैं, उनकी समस्त पर्यायें गल जाती हैं, सामने दिखाई ही नहीं देतीं। पर्याय तो एक समय की ही होती है, उधर से दृष्टि हटी हो, अपने स्वभाव में डटी हो तो पर्याय का तो पता ही नहीं चलता और वह निर्जरित क्षय होती जाती है। पर्याय की कोई सत्ता अस्तित्व नहीं है, वह तो असत्, क्षण भंगुर, नाशवान है ही, उसकी सत्ता मानना, उसे महत्व देना ही अज्ञान है तथा ज्ञान स्वभाव में लीन रहने पर सारे पूर्व बद्ध कर्म क्षय हो जाते हैं।
कर्म पुद्गल जड़ अचेतन हैं, पर्याय एक समय की है। यह स्वयं के ज्ञान में जानने में आते हैं। अपना उपयोग इनकी तरफ होता है तभी यह देखने जानने में आते हैं और अपनी अज्ञानता मिथ्या मान्यता से इन्हें अच्छा बुरा
श्री कमलबत्तीसी जी मानते हैं, सुख-दुःख मानते हैं, यही बंधन है। इनको और अपने ज्ञान स्वभाव को लक्षण भेद से सर्वथा भिन्न करने पर ही अपना सत्स्वरूप शुद्धात्म तत्व लक्ष्य में आता है, जैसे जो आत्मा पूर्ण वीतरागी होता है, वही अरिहन्त, सर्वज्ञ परमात्मा होता है। वैसे ही सर्व प्रकार के कर्म और रागादि भावों से भिन्न मैं ज्ञायक स्वभावी आत्मा हूँ ऐसा जिसकी समझ में आता है, वही सर्वज्ञ स्वभावी आत्मा को पहिचानता अनुभव करता है।
पाप भाव, पाप कर्म जैसे आत्मा से भिन्न हैं, वैसे ही पुण्य भाव, पुण्य कर्म भी आत्मा से भिन्न हैं । ज्ञायक स्वभावी आत्मा इन्हें देखता जानता है पर वह कुछ करता नहीं है। शुद्धात्म स्वरूप में इनका प्रवेश ही नहीं है तथा स्वानुभूति में इनका पता ही नहीं रहता, ऐसी अन्तर दृष्टि होना, वस्तु स्वरूप जानना ही, सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान है। कर्मादि अशुद्ध पर्याय और ज्ञानी के ज्ञान में ज्ञेय, ज्ञायक सम्बन्ध है, कर्तापना नहीं है। ज्ञान में रागादि के प्रति तीव्र अनादर भाव जागता है, यही ज्ञान और राग के मध्य भेदज्ञान होने का लक्षण है। जितने भी पर्यायी विकल्प उठते हैं, सब दुःख ही दुःख रूप हैं ऐसा ज्ञान जानता है।
यहाँ सद्गुरू ने विशेष सूत्र दिये हैं
(१) अपने चैतन्य स्वभाव के आनन्द में रहने से पर्याय गल जाती है । (२) अपने ज्ञान स्वभाव में लीन होने पर सब कर्म क्षय हो जाते हैं।
स्व पर प्रकाश का पुंज ज्ञान स्वभावी भगवान आत्मा तो शुद्ध ही है पर जो रागादि भावों से भिन्न होकर उसकी उपासना करे, उसी के लिये वह शुद्ध है। जिसने समस्त कर्मादि संयोग व एक समय की पर्याय से भी भिन्न अपने को जाना है तथा स्व में एकाग्रता करते हैं, उनके शुद्धता प्रगट होती है। जीव और कर्म पुद्गलादि अनादि से एक साथ रहते, एकमेक जैसे हो रहे हैं परन्तु दोनों कभी भी न तो एक रूप हुये और न ही हो सकते, दोनों भिन्न ही हैं। ऐसा जानकर अपने में आनन्दित प्रसन्न रहने पर पर्याय गलती है और कर्म क्षय होते हैं।
निज स्वभाव ज्ञान मात्र है। आत्मा में ज्ञान अवस्थित है परन्तु ज्ञेय ज्ञान के भेदज्ञान से शून्य होने के कारण स्वयं को ज्ञेय रूप जानता हुआ, अज्ञान रूप परिणमित होता हुआ, अज्ञानी उनका कर्ता बनता है। विकार और स्वभाव को एक मान रहा है अतः यथार्थ विचार नहीं कर पाता। दया दानादि से धर्म होने की मान्यता, व्यवहारिक क्रिया कांड, कषाय को मंद करे तो धर्म हो,