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श्री कमलबत्तीसी जी
११.कल्याण
श्री कमलबत्तीसी जी
कों का क्षय होता जाता, परमानंद बढ़ाता है ।
पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है । ३. भेदज्ञान तत्व निर्णय द्वारा, वस्तु स्वरूप को जाना है।
ध्रुवतत्व शुद्धातम हूँ मैं, अनुभव प्रमाण पहिचाना है। सत्ता एक शून्य विन्द का, नारा तभी लगाता है।
पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है । ४. पर्यायी परिणमन क्रमबद्ध, त्रिकालवर्ती निश्चित है।
जैसा केवलज्ञान में आया, टाले टले न किंचित् है ॥ क्षणभंगुर सब नाशवान है, ध्रुव की धूम मचाता है।
पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है। ५. सिद्धोहं - सिद्धरूपोहं का, जिसे हुआ बहुमान है।
अहं ब्रह्मास्मि ही कहता है, खुद आतम भगवान है । एकोहं द्वितियो नास्ति, जग अस्तित्व मिटाता है। पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है। क्या होता आता जाता है, पर का जरा न ख्याल है। शुद्ध दृष्टि अखंड पर रहती, सब माया भ्रमजाल है ॥ धुवधाम में बैठा-बैठा, जय जयकार मचाता है । पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है । अकड़-पकड़ सब मिट जाने से, परम शान्ति आती है। अच्छा बुरा छूट जाना ही, निर्भय निद बनाती है ॥ ज्ञानानंद निजानंद रहता, ब्रह्मानंद मस्ताता है ।
पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है ॥ ८. निज स्वभाव में रहना ही तो, केवलज्ञान कहाता है।
तीर्थंकर सर्वज्ञ के वली, परमातम बन जाता है | सहजानंद स्वरूपानंद हो, मोक्ष परम पद पाता है। पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है।
१. धुवतत्व शुद्धातम हूं मैं, इसका ज्ञान श्रद्धान किया।
त्रिकाली पर्याय क्रमबद्ध, इसको भी स्वीकार लिया ॥ ज्ञायक ज्ञान स्वभावी चेतन, खुद आतम भगवान है।
ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है। २. वस्तु स्वरूप सामने देखो, शुद्ध तत्व का ध्यान धरो।
पर पर्याय तरफ मत देखो, कर्मोदय से नहीं डरो ॥ धुव तत्व की धूम मचाओ, पाना पद निर्वाण है।
ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है। ३. सिद्धोहं-सिद्धरूपोहं का, शंखनाद जयकार करो ।
अभय स्वस्थ मस्त होकर के, साधु पद महाव्रत धरो॥ अब संसार तरफ मत देखो, सब ही तो श्मशान है।
ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है। ४. ज्ञेय मात्र सब ही भ्रांति है, भावक भाव भ्रमजाल है।
पर्यायी अस्तित्व मानना, यही तो सब जंजाल है । निज सत्ता स्वरूप को देखो, कैसा सिद्ध समान है।
ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है ॥ ५. छहों खंड चक्रवर्ती राजा, तीर्थंकर महावीर हुये ।
कौन बचा है यहां बताओ, राम कृष्ण भी सभी मुये ॥ अजर अमर अविनाशी चेतन, ज्ञायक ज्ञान महान है। ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है । ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम, निजानंद में लीन रहो। अब किससे क्या लेना देना, ॐ नमः सिद्ध ही कहो ॥ ध्यान समाधि लगाओ अपनी, प्रगटे केवलज्ञान है। ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है।
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